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रेने देकार्ते का अन्तःक्रियावाद
देकार्ते ने मन की धारणा को एक नये रूप में प्रस्तुत किया है। उसके पूर्ववर्ती दार्शनिकों ने मन और शरीर को एक ही तत्व के दो पहलुओं के रूप में स्वीकार किया, परन्तु देकार्ते ने मन और शरीर को भिन्न माना। पहले मन तथा शरीर सापेक्ष माने जाते थे, परन्तु देकार्ते ने निरपेक्ष रूप में दोनों की सत्ता स्वीकार की। इस प्रकार मन और शरीर के सम्बन्ध के विषय में द्वैतवाद की स्थापना हुई।
देकार्ते ने शरीर और मन दोनों के गुण अलग माने हैं। शरीर भौतिक गुणों का विस्तार है और मन में चेतनतत्त्व है। यहाँ प्रश्न उठता है कि शरीर का मन पर और मन का शरीर पर प्रभाव कैसे पड़ता है? हम देखते हैं कि जब हम कोई कार्य अपनी इच्छा से करते हैं तो लगता है कि मन का शरीर पर प्रभाव है और जब ज्ञानेन्द्रियों से अनुभव करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि शरीर का मन पर प्रभाव है। यदि शरीर और मन दोनों में सम्बन्ध नहीं हो तो कार्य कैसे होता है? जीव का कोई कार्य मन और शरीर के एकीकरण के बिना सम्भव नहीं है।
देकार्ते ने इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार दिया - शरीर का मन पर वास्तविक रूप से कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उन्होंने शरीर और मन की पारस्परिक क्रिया का आधार पिनियल ग्रन्थि को माना है। इस ग्रन्थि के कारण मन और शरीर में परस्पर सहयोग दिखाई देता है।
देकार्ते के अन्तःक्रियावाद से तीन समस्याएँ उद्भूत होती हैं -
निराकार आत्मा पिनियल ग्रन्थि में किस तरह रह सकती हैं? 2. यदि शरीर और मन दोनों भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं तो उनमें अन्तक्रिया कैसे हो
सकती है? देकार्ते का सिद्धान्त शक्ति संरक्षण नियम के विरूद्ध है, क्योंकि इसके अनुसार शारीरिक घटनाओं से मानसिक घटनायें और मानसिक घटनाओं से शारीरिक घटनाएँ नहीं हो सकती हैं।
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कुछ दार्शनिक इस अन्तक्रियावाद का समर्थन भी करते हैं, जैसे -
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