________________
गीता में आत्मा को 'क्षेत्रज्ञ' भी कहा गया है। क्षेत्र अर्थात् शरीर, किये गए कार्यों का फल धारण करने के कारण या भोगायतन होने से शरीर को क्षेत्र' संज्ञा दी है। क्षेत्र के ज्ञाता को 'क्षेत्रज्ञ' कहते हैं। आत्मा चरण से लेकर मस्तक पर्यन्त समग्र शरीर को स्वाभाविक अथवा उपदेश द्वारा प्राप्त अनुभव से विभागपूर्वक स्पष्टतः जानता है, अतः उसे 'क्षेत्रज्ञ' कहा गया है। जैसे - रथ और सारथी भिन्न-भिन्न हैं, वैसे ही क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ भिन्न भिन्न हैं। इस प्रकार आत्मा को एक मौलिक तत्व के रूप में स्वीकार किया गया है। पाश्चात्यदर्शन में आत्मा और शरीर की अवधारणा
भारतीय दर्शन परम्परा से विलग होकर पाश्चात्यदर्शन के इतिहास का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि वहाँ भी आत्मा के अमर अस्तित्व का ही समर्थन मिलता है। पाश्चात्य जगत् के आदि दार्शनिक प्लेटो के अनुसार, “संसार के समस्त पदार्थ द्वन्द्वात्मक है, अतः जीवन के पश्चात् मृत्यु और मृत्यु के पश्चात् जीवन अनिवार्य है।"
प्रोफेसर अलबर्ट आइन्स्टीन ने कहा, "मैं जानता हूँ कि सारी प्रकृति में चेतना काम कर रही है।" सर ए. एस. एडिंग्टन का मानना है कि कोई अज्ञात शक्ति काम कर रही है, हम नहीं जानते हैं कि वह क्या है? वे चैतन्य को मुख्य मानते हैं, भौतिक पदार्थ को गौण। हर्बर्ट स्पेन्सर का मन्तव्य है "गुरू, धर्मगुरू, बहुत सारे दार्शनिक प्राचीन हो या अर्वाचीन, पश्चिम के हों या पूर्व के, सबने अनुभव किया है कि वह अज्ञात या अज्ञेय तत्व वे स्वयं ही हैं।" जे.बी. एस. हेल्डन का विचार है कि सत्य यह है कि विश्व का मौलिक तत्व जड़ पदार्थ (Inert Matter) बल (Force) या भौतिक पदार्थ (Physical thing) नहीं है किन्तु मन और चेतना ही है। आर्थर एच. काम्पटन ने लिखा है, "एक निर्णय जो कि बताया है ..... मृत्यु के बाद आत्मा की सम्भावना है। ज्योति काष्ठ से भिन्न है।"
इस तरह पाश्चात्य दार्शनिकों व वैज्ञानिकों ने आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया है। कुछ वैज्ञानिकों ने आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व पर संदेह भी किया है -
बहुत से पश्चिमी वैज्ञानिक आत्मा को मन से अलग नहीं मानते। उनकी दृष्टि में मन और मस्तिष्क-क्रिया एक है। पावरलोफ ने इस बात का समर्थन किया है। उनके
' जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण, आ. देवेन्द्रमुनि जी, पृ. 118
205
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org