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इन्द्रिय और आत्मा को भी भिन्न माना जाने लगा । केनोपनिषद में यह सूचित किया कि इन्द्रियाँ और मन आत्मा के बिना कुछ भी करने में असमर्थ हैं, आत्मा का अस्तित्त्व होने पर ही चक्षु आदि इन्द्रियाँ और मन अपना-अपना कार्य करते हैं । '
इस प्रकार उपनिषदों में जीवात्मा के विषय में यथार्थवादी दृष्टिकोण उपलब्ध होता है। यह आत्मा भौतिक तत्वों से निर्मित नहीं है, अपितु अनादि है, इस तथ्य को उपनिषदों में बार-बार स्वीकार किया गया है । कठोपनिषद में बताया गया है कि 'आत्मा न उत्पन्न होती है, न मरती है, और न ही किसी वस्तु का परिवर्तित रूप है तथा उससे परिणित होकर कोई अन्य वस्तु भी नहीं बन सकती है, यह अजन्मा तथा नित्य है, शरीर के नाश होने पर उसका नाश नहीं होता ।'
छान्दोग्य उपनिषद् भी यही स्वीकार करता है कि जीव का कभी विनाश नहीं होता है, अपितु जीव शरीर से निकल जाता है। शरीर मरता है जीवात्मा नहीं ।
बृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य - मैत्रैयी संवाद में भी जीवात्मा को नित्य और अविनाशी बताया है। 1
इस प्रकार उपनिषदों में जीव और शरीर को पृथक् माना है। जीव और शरीर को पृथक् मानने से ही साध्य-साधक, उपास्य - उपासक, भोग्य-भोक्ता तथा ज्ञाता - ज्ञेय संबंध रहेंगे। एक मानने पर ऐसी व्यवस्था नहीं रहती है।
गीता का दृष्टिकोण
गीता के अनुसार शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा नष्ट नहीं होती। वह दूसरा शरीर ग्रहण करती है। जैसे व्यक्ति वस्त्रों को जीर्ण होने पर बदल देता है, वैसे यह आत्मा पुराने शरीरों को बदलती रहती है। शरीर बदलता है पर आत्मा वही रहती है। आत्मा शाश्वत है, अभेद्य है।
। केनोपनिषद - 1.4/6
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“ न जायते म्रियते वा विपश्चित्, नायं कुताश्चिनुन्न वभूव कश्चित् । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं हन्यस हन्यमाने शरीरे ।। कठोपनिषद 2/18 ̈
3 छान्दोग्य उपनिषद 8 / 11
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बृहदारण्यक उपनिषद 3 / 2-3
5 कठोपनिषद 3/2
6 गीता, 2/22
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