________________
रूपविज्ञान, रसविज्ञान, आदि विज्ञान को 'विज्ञानस्कन्ध' कहते हैं। संज्ञा के कारण वस्तुविशेष के बोधक शब्द को "संज्ञाशब्द' कहते हैं जैसे गौ, अश्व आदि।
पुण्य-पाप आदि धर्म-समुदाय को "संस्कारस्कन्ध' कहते हैं। इन रूप आदि पंचस्कन्धों से भिन्न सुख-दुःख, इच्छा, द्वेष, ज्ञानादि का आधारभूत आत्मा नाम का कोई पदार्थ नहीं है।
बौद्धधर्म के कुछ मतवादी चातुर्धातुकवादी हैं। उनके अनुसार पृथ्वी, जल, तेज व वायु ये चार धातु ही सर्वस्व हैं। वे मानते हैं कि यह शरीर चार धातुओं से बना है, तथा शरीर से भिन्न कोई आत्मा नहीं है। उनके मत से नित्य या ध्रुव कोई पदार्थ नहीं है जिस प्रकार दीपक की लौ प्रतिक्षण बदलती रहती है फिर भी अखण्ड लगती है, उसी प्रकार आत्मा भी है।
जब इसी बात को भगवान बुद्ध से पूछा गया कि 'जीव और शरीर भिन्न हैं या अभिन्न?' तो उन्होंने कहा कि - हे भिक्षु! जीव वही है जो शरीर है, ऐसी दृष्टि रखने पर ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं होता। तथा हे भिक्षु! जीव अन्य है और शरीर अन्य है, ऐसी दृष्टि रखने पर भी ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं होता। इस प्रकार उन्होंने मध्यममार्ग का उपदेश दिया।
मिलिन्दप्रश्न में भदन्त नागसेन ने यवनाधिपति मिलिन्द को बौद्ध सम्मत आत्म-स्वरूप को एक सुन्दर उपमा के सहारे बतलाया है - नागसेन ने राजा से पूछा कि – 'इस कड़कड़ाती धूप में जिस रथ पर सवार होकर आप इस जगह आये हैं, क्या आप उस रथ का संपूर्ण वर्णन कर सकते हैं? क्या दण्ड रथ है या अक्ष रथ है? राजा के द्वारा निषेध करने पर फिर पूछा कि क्या चक्के रथ हैं? या रस्सियाँ रथ हैं? या लगाम या चाबुक रथ है? बार-बार निषेध करने पर नागसेन ने पूछा आखिर रथ क्या चीज है? अन्त में मिलिन्द को स्वीकार करना पड़ा कि दण्ड, चक्र आदि अवयवों के आधार पर केवल व्यवहार के लिए 'रथ' नाम दिया गया है। इन अवयवों को छोड़कर किसी अवयवी की सत्ता दिखाई नहीं देती। तब नागसेन ने बताया कि ठीक यही दशा 'आत्मा' की भी है।
'तत्त्वज्ञान स्मारिका (आत्मतत्त्व विश्लेषण) डा. प्रल्हाद पटेल, श्री वर्द्धमान जैन पेढ़ी, पालीताणा, स. 2038, पृ. 16
जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों को तुलनात्मक अध्ययन, पृ. 213
200
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org