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की है, दोनों का रूपत्व गुण अलग-अलग है, उसी प्रकार आत्मा उपयोगमय तथा शरीर जड़-पुद्गल स्वभाव वाला है, उन दोनों के लक्षण अलग होने से दोनों में भिन्नता है। अतः व्यवहारनय से शरीर और आत्मा एक हैं किन्तु निश्चयनय से दोनों अलग-अलग हैं।
योगीन्दुदेव ने परमात्मप्रकाश में आत्मा और देह की भिन्नता और अभिन्नता को उदाहरणसहित समझाया है - जैसे वस्त्र और शरीर दोनों एक दिखाई देते हैं किन्तु शरीर से वस्त्र अलग है, उसी प्रकार आत्मा और शरीर मिले हुए दिखते हैं किन्तु दोनों अलग हैं। शरीर को रंगने से, जीर्णता से, और विनाश से आत्मा रंग-बिरंगी या जीर्ण अथवा नष्ट नहीं होती। यह आत्मा व्यवहारनय से देह में स्थित है, किन्तु शुद्ध रूप से अलग है।
___ “मैं सुखी हूँ", "मैं दुःखी हूँ" इस प्रकार का जो अनुभव होता है, वह आत्मा के बिना नहीं होता। यदि ऐसा मानें कि शरीर से ही अनुभव होता है तब यह प्रश्न उठता है कि - जब हम निद्रावस्था में होते हैं, तब यह अनुभव किसके सहारे होता है? यदि आत्मा
और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं होते तो इन्द्रियों के सुषुप्त रहने पर ऐसा अनुभव होना संभव नहीं होता। इसलिए यह मानना आवश्यक है कि आत्मा एक स्वतंत्र द्रव्य है।
जीव और शरीर (पुद्गल) में परिभोक्ता और परिभोग्य सम्बन्ध है। जीव चेतन है, इसलिए वह परिभोक्ता है, अजीव अचेतन है, इसलिए वह परिभोग्य है। चेतन में परिभोक्तृत्व नामक पर्याय है और अचेतन में परिभोग्य नामक पर्याय है। इन पर्यायों के कारण चेतन और अचेतन में सम्बन्ध स्थापित होता है। बौद्धदर्शन में आत्मा और शरीर की अवधारणा
सौत्रान्तिकबौद्ध मत के अनुसार पाँच स्कन्धों के सिवाय आत्मा का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। वे पाँच स्कन्ध इस प्रकार हैं - रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार। इनसे भिन्न कोई आत्मा नामक स्कन्ध नहीं है।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु ये चार धातु आदि तथा रूपादि विषय रूपस्कन्ध कहलाते हैं। सुख-दुःख और असुख-अदुःख रूप वेदना अनुभव को वेदनास्कन्ध कहते हैं।
'समयसार, गाथा 23 * परमात्मप्रकाश, गाथा 180-181
नव पदारथ, आ. भिक्षु, पृ. 26
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