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संसारी आत्मा किसी अपेक्षा से शरीर से सर्वथा भिन्न नहीं होती, इसलिए आत्मा की परिणति का शरीर पर और शरीर की परिणति का आत्मा पर प्रभाव पड़ता है।
___ शरीर और आत्मा का क्षीर-नीरवत् अथवा अग्नि-लौहपिण्डवत् तादात्म्य होता है, यह आत्मा की संसारावस्था है। इसमें जीव और शरीर का कथंचित भेद होता है। अतःएवं जीव के 10 परिणाम होते हैं।'
भगवान महावीर के समक्ष जब यह प्रश्न उपस्थित किया गया कि - "भगवन्! जीव वही है जो शरीर है, या जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है?" तो महावीर प्रभु ने उत्तर दिया - "हे गौतम! जीव शरीर भी है और जीव शरीर से भिन्न भी है। इस प्रकार भगवान महावीर ने अपेक्षा भेद से आत्मा और देह के मध्य भिन्नत्व और एकत्व दोनों को स्वीकार किया, क्योंकि यदि आत्मा और शरीर को एकान्त रूप से भिन्न मानें तो भूख-प्यास, निद्रा प्रमाद आदि शरीर धर्म का सम्बन्ध नैतिकता से नहीं रहेगा, न हिंसा-चोरी आदि अनैतिक कार्य होंगे। साथ ही समस्त शारीरिक कर्मों की शुभाशुभता के लिए आत्मा को उत्तरदायी नहीं माना जा सकेगा। शरीर से किये कर्मों का फल आत्मा को नहीं मिलना चाहिए। इस जन्म के शरीर के कर्मों का फल दूसरे जन्म का शरीर भोगे, यह भी उचित नहीं होगा, क्योंकि दोनों शरीर भिन्न हैं। साथ ही आत्मा और शरीर को एकान्त रूप से भिन्न मानने पर शरीर से दूसरे की सेवा स्तुति, कायिकतप, आदि शुभक्रियाएँ व्यर्थ हो जायेंगी। ऐसी स्थिति में अकृतागम का दोष होगा।
यदि आत्मा और शरीर को एक मानें तो शरीर के विनाश के साथ आत्मा का भी विनाश मानना पड़ेगा और ऐसी स्थिति में अनेक शुभाशुभ कर्म जो बान्धे गये हैं,उन सब का प्रतिफल अभोग्य ही रह जायेगा। इससे नैतिक दृष्टि से कृतप्रणाश का दोष उपस्थित हो जायेगा।
समयसार में बताया गया है कि जैसे स्वर्णकार सोने और चांदी को गलाकर उसे एक पिण्ड में मिला देता है तो ऐसा लगता है कि दोनों एकमेक हो गये हैं, उसी तरह आत्मा और शरीर के परस्पर एक जगह पर रहने की व्यवस्था होने से एकत्व का आभास होता है परन्तु निश्चयनय से एकत्व नहीं है। जैसे सोना पीले रंग तथा चांदी सफेद रंग
'ठाणं, 10/18
भगवती सूत्र “आयाभन्ते! काये? अन्ने काये, गोयमा! आया वि काये विकाये।। 13/128" ' जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. सागरमल जैन, भाग 2, पृ. 212
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