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यदि आत्मा शरीर से भिन्न न हो तो किसी भी प्राणी का मरण नहीं होता, क्योंकि शरीर तो मरने के बाद भी बना रहता है। शरीर से भिन्न जीव का खण्डन करने के लिए जो वर्णादि रचना का अभाव बताते हैं तो यहाँ यह स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए कि वर्णादि तथा अवयव रचना मूर्त पदार्थ के होते हैं, अमूर्त के नहीं। आत्मा तो अमूर्त है, तब उसमें मूर्त के गुण कैसे समाहित हो सकते हैं?
उनका यह कथन कि भिन्न वस्तुओं को अलग करके दिखाया जा सकता है किन्तु अभिन्न को नहीं। यहाँ यह निश्चित है कि मूर्त पदार्थ को प्रत्यक्ष तथा भिन्न करके देखा जा सकता है, किन्तु अमूर्त पदार्थ इन्द्रियगम्य नहीं है। यदि अमूर्त पदार्थ को प्रत्यक्ष दिखाया जा सकता हो तो वे वादीगण अपने ज्ञान को दिमाग से बाहर निकालकर प्रत्यक्ष क्यों नहीं दिखाई देता? अपने ज्ञान को समझाने के लिए वह शब्द प्रयोग क्यों करता है?
इस प्रकार आत्मा और शरीर भिन्न सिद्ध होता है।'
जैनदर्शन अनेकान्त दृष्टि वाला है, यह सत्य है कि शरीर और चेतना (आत्मा) दोनों भिन्न धर्मक हैं, फिर भी इनका अनादिकाल से सम्बन्ध चला आ रहा है। चेतन और जड़ दोनों चैतन्य की दृष्टि से अत्यन्त भिन्न हैं, इसलिए वे सर्वथा एक नहीं हो सकते। किन्तु सामान्य गुण की दृष्टि से वे अभिन्न भी हैं, इसलिए उनमें सम्बन्ध हो सकता है। इन दोनों में किस प्रकार का सम्बन्ध है, इसका समाधान जैनदर्शन में इस प्रकार किया
संसारी आत्मा सूक्ष्म और स्थूल, इन दो प्रकार के शरीरों से घिरा है। एक जन्म से दूसरे जन्म में जाने के समय स्थूल शरीर छूट जाता है, किन्तु सूक्ष्म शरीर साथ में रहता हैं। सूक्ष्म शरीरधारी जीवों को एक के बाद दूसरे-तीसरे स्थूल शरीर का निर्माण करना पड़ता है। सूक्ष्म शरीरधारी जीव ही दूसरा शरीर धारण करता है, तो यह प्रश्न ही नहीं होता कि अमूर्त जीव ने मूर्त शरीर में कैसे प्रवेश किया? सूक्ष्म शरीर और आत्मा का सम्बन्ध अपश्चानुवर्ती है। इसलिए जब तक जीव संसारीदशा में है तब तक कथञ्चित मूर्त है। उसका अमूर्त रूप सिद्धावस्था में प्रकट होता है। फिर आत्मा का शरीर के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता है।
' सूत्रकृतांगसूत्र, 2 श्रुत., 1/9, विवेचन पृ. 46, हेमचन्द्रजी मा. 2 जैन दर्शन मनन और मीमांसा, आ. महाप्रज्ञ, पृ. 284
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