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अधिक गहन अन्धकार में पड़ जाते हैं । अतः फलित होता है कि आत्मा को शरीर से भिन्न मानने पर ही परलोक-स्वर्ग-नरक की व्यवस्था घटित हो सकती है, अन्यथा नहीं ।'
अन्वयव्यतिरेक के द्वारा शरीर ही आत्मा है, ऐसा सिद्ध होता है, इस सम्बन्ध में वे कुछ युक्तियाँ देते हैं
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मरने के बाद मृत व्यक्ति को जलाने के लिए जो लोग श्मशान में ले जाते हैं, वे उसे जलाकर अकेले घर लौटते हैं, उनके साथ मृत व्यक्ति का जीव नामक कोई पदार्थ साथ में नहीं आता ।
चित्ता में जब मृत व्यक्ति का शरीर जलता है, उस समय जीव नामक कोई पदार्थ शरीर को छोड़कर अलग जाता हुआ नहीं दिखाई देता है। श्मशान में भी हड्डियों के अतिरिक्त कुछ नहीं बचता, जिसे हम जीव का विकार कह सकें । अतः आत्मा शरीर रुप ही है ।
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जगत् में जितनी वस्तुएँ हैं, वे सब एक-दूसरे से भिन्न विशेषण लिए हुए हैं। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में एक-दूसरे से अन्तर होता । यदि शरीर से भिन्न आत्मा नाम की कोई वस्तु होती तो वह शरीर से भिन्न वर्ण- गन्धादि में दिखाई देती । परन्तु ये सब आत्मा में बिल्कुल नहीं पाये जाते हैं ।
जो वस्तु जिससे भिन्न होती है, उसको उससे अलग करके दिखाया जा सकता है । जैसे तलवार म्यान से, मंजू नामक घास से, ईषिका, माँस से हड्डी, तिल से तेल अलग होने के कारण इन सबसे पृथक् निकालकर दिखाई जा सकती है, क्योंकि भिन्न-भिन्न वस्तुओं को अलग-अलग करके दिखलाना शक्य है, किन्तु जो वस्तु जिससे भिन्न नहीं है, बल्कि तत्त्वरूप है, उसको अलग-अलग करके दिखलाना शक्य नहीं है । यही कारण है कि शरीर से पृथक् करके जीव (आत्मा) को कोई नहीं दिखा सकता है, क्योंकि वह शरीरस्वरुप है ।
किन्तु तज्जीवतच्छरीरवादी की ये युक्तियाँ असत्य हैं। प्रत्येक प्राणी अपने-अपने ज्ञान का अनुभव करता है, आत्मा का गुण ज्ञान है। अमूर्त ज्ञान गुण का आश्रय कोई गुणी अवश्य होना चाहिए। यह भी नहीं हो सकता कि मूर्त शरीर उसका आश्रय हो, अतः अमूर्त ज्ञानरूप गुण का आश्रय अमूर्त आत्मा है।
सूत्रकृतांग सूत्र, गाथा 1/14, हेमचन्द्रजी मा., आत्मज्ञानपीठ, मानसा, पृ. 99
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