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अजीतकेशकम्बलिन्, चार्वाकदार्शनिक एवं भौतिकवादी इस मत का प्रतिपादन करते हैं कि मूल तत्व जड़ है, (अचेतन), और उसी से अचेतन की उत्पत्ति होती है। बौद्ध विज्ञानवाद, शांकर-वेदान्त इस मत का प्रतिपादन करते हैं कि मूल तत्व चेतन है, और उसी की अपेक्षा से जड़ की सत्ता मानी जाती है। विशिष्टाद्वैतवादी कुछ विचारक ऐसे भी हैं जिन्होंने परम-तत्व को एक मानते हुए भी संसार को जड़-चेतन उभयरूप स्वीकार किया है। जैन सांख्य, न्याय वैशेषिक कुछ विचारक जड़ और चेतन दोनों को परमतत्व मानते हैं और उनके स्वतंत्र अस्तित्व में विश्वास करते हैं।'
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जैन दर्शन की मान्यता है कि जड़ और चेतन दोनों अलग-अलग हैं। इस सिद्धान्त के लिए आगमों में निम्न प्रमाण हैं -
आत्मस्वरूप को समझने की जिज्ञासा लेकर पयासी राजा, केशीश्रमण के निकट गये और उनसे कहा कि “भन्ते! आपकी यह मान्यता युक्तिसंगत नहीं है कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं, वस्तुतः जीव और शरीर एक ही हैं और इसे सिद्ध करने के लिए मेरे पास एक-दो नहीं, अनेक अनुभव सिद्ध प्रमाण हैं। वे इस प्रकार हैं - 1. मेरे दादा, जो अधार्मिक होने के कारण निश्चित ही नरक में गये, उनका मुझ पर
अत्यधिक स्नेह था, यदि वे मेरे हित के लिए मुझे आकर कहते कि - “पयासी! पाप कर्म का फल अति कटू होता है, इसलिए तू पाप-कर्म से दूर रहकर धर्म करना। परन्तु इस तरह का उद्बोधन देने नहीं आये, इससे स्पष्ट होता है कि उनका जीव यहीं शरीर के साथ समाप्त हो गया। तब केशी श्रमण ने प्रतिप्रश्न किया कि “मानो यदि कोई पुरुष तुम्हारी रानी के साथ काम-भोग का सेवन करे, और उस समय तुम देख लो, तो तुम उस पुरुष को दण्ड दोगे? हाँ, किन्तु यदि वह पुरुष कहे कि रूको! मैं अपने स्वजनों को कह कर आता हूं कि तुम ऐसा कुत्सित आचरण मत करना नहीं तो तुम्हें भी ऐसा दण्ड मिलेगा। राजन्! क्या तुम उसे समय दोगे?" राजा ने कहा - नहीं। उसी प्रकार नारकी जीव भी नारकीय दण्ड के भागी होने से नरक से नहीं आ सकते, परमाधार्मिक देव भी नारकीय
'द्रव्यानुयोग, प्रस्तावना, पृष्ठ 38
राजप्रश्नीय सूत्र, 244, पृ. 169
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