________________
साक्षात्कार करते हैं। इस प्रकार वेद-उपनिषदों में भी शरीर से भिन्न जीव का प्रतिपादन है। अतः यह सिद्ध होता है कि आत्मा शरीर से भिन्न है।'
इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने वायुभूति जी की शंकाओं का सयुक्तिक समाधान किया। इन सब समाधानों को वर्तमान में भी स्वीकार करते हैं और सिद्ध करते हैं कि आत्मा, देह, इन्द्रिय, मन आदि से भिन्न स्वतंत्र पदार्थ है। व्यावहारिकता में भी, हम देह के लिए 'मेरा शरीर' शब्द का प्रयोग करते हैं। कोई भी व्यक्ति 'मैं देह' ऐसा नहीं बोलता है। 'मेरा' शब्द सम्बन्धवाचक है। 'मेरा घर' जब हम इस शब्द का प्रयोग करते हैं, तब यह बात स्पष्ट होती है कि 'मैं और घर दोनों भिन्न हैं। इसी प्रकार शरीर ‘मेरा शरीर' कहने से शरीर और आत्मा के बारे में भिन्नता का बोध होता है।
जब किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तब वह न तो खाता है, न पीता है, न सोता है और न जागता है, अर्थात् उसके शरीर की समस्त क्रियाएँ बन्द हो जाती हैं। इसका अर्थ यही है कि उसके देह में से 'आत्मा' नामक तत्त्व था, वह चला गया। जब तक उस देह में आत्मा थी, तभी तक वह देह खाता था, पीता था, चलता था परन्तु उस देह में से आत्मा निकल जाने के बाद वे सब क्रियाएं बन्द हो गयी। इसका यही तात्पर्य है कि आत्मा इस देह से भिन्न है।
आत्मा और शरीर के सम्बन्ध को लेकर विभिन्न दार्शनिक अवधारणाएं
जैनदर्शन की अवधारणा
आत्मा एक मौलिक तत्व है। आत्मा और शरीर अलग-अलग हैं। आत्मा या जीव का लक्षण चेतना है। यह लक्षण जीव में सदा रहता है। आत्मा और शरीर को भिन्न-भिन्न दर्शाने के लिए आगम ग्रन्थों में प्रमाण मिलते हैं।
___ सभी दर्शन यह मानते हैं कि संसार आत्म और अनात्म का संयोग है, मूल तत्व क्या है, इस बात को लेकर विवाद है, चार प्रमुख धारणाएं अपना मत निम्न प्रकार से रखती हैं -
' सत्येनलभ्यस्तपसा ध्येष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो विशुद्धोयं पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मानः। मुण्डकोपनिषद, 3/1/5
189
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org