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इन 21 कारणों से विद्यमान वस्तु भी अनुपलब्ध रहती है, प्रत्यक्ष नहीं होती, वैसे ही आत्मा स्वभाव से विप्रकर्ष है, अर्थात् आकाश के समान अमूर्त है, अतः उसकी उपलब्धि नहीं होती है। आत्मा के साथ जो कार्मणशरीर है, वह भी परमाणु के समान सूक्ष्म है, अतः वह भी अनुपलब्ध रहता है। इस कारण हमारे शरीर में से निकलते समय अथवा उसमें प्रविष्ठ होते समय आत्मा कार्मण शरीर से युक्त होने पर भी दिखाई नहीं देती।'
छद्मस्थ अर्थात् सामान्य जन को आत्मा नहीं दिखाई देने पर उसका अभाव नहीं माना जा सकता, क्योंकि आत्मा केवल ज्ञानियों को प्रत्यक्ष है। वेदवाक्यों द्वारा आत्मा और शरीर की भिन्नता
___आत्मा को शरीर से अनन्य मानने पर वेदवाक्य भी सिद्ध नहीं हो सकेंगे। स्वर्ग की प्राप्ति के लिए यज्ञ-विधि और दानादि कर्म भी व्यर्थ व निष्फल सिद्ध होंगे, क्योंकि जीव के निकल जाने पर शरीर को तो चिता में रख देते हैं, तब उनका फल कौन प्राप्त करेगा? जबकि वेदों में कहा गया है कि “अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः” स्वर्ग की इच्छा वालों को अग्निहोत्र करना चाहिए। यह वेद विधान बाधित होता है, क्योंकि शरीर जलकर राख हो जायेगा, स्वर्ग में कौन जायेगा? अतः शरीर से भिन्न आत्मा को मानना ही श्रेयस्कर है।
वेद-उपनिषद् में जो कहा गया है कि “विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति"। इसका सामान्य अर्थ लेते हैं कि - भूतों से भिन्न आत्मा नहीं है, भूतों के नष्ट होते ही आत्मा का भी विनाश हो जाता है। जबकि उसका सही अर्थ यह है कि विज्ञानधन अर्थात पुरुष आत्मा भूतों से भिन्न है। शरीर रूप परिणत इस भूत संघात का कोई कर्ता अवश्य है, उसका जो कर्ता है वह शरीर से भिन्न जीव है।
वेदों में भी कहा गया है - सत्य से तपश्चर्या से, तथा ब्रह्मचर्य से नित्य, ज्योतिर्मय, विशुद्ध स्वरूप आत्मा प्राप्त की जा सकती है। धीर तथा यति संयतात्मा उसका
दलसुखभाई मालवणिया, गणधरवाद, पृ. 65 २ स्वर्गाप्तिये यज्ञविधिस्तथाऽऽर्य, दानादि कर्माण्यपि भो वृथा स्युः।
देहे चितायां तु फलानि तेषां, जीवाहते को हि लभते नूनम् ।। महावीरदेशना, श्लोक 16, पृ. 145 देहाणण्णे व जिए, जमग्गिहोत्तादिसग्गकामस्स। वेतविहितं विहण्णति, दाणादिफलं च लोयम्मि।। गाथा 1684
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