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जीव को शरीर से भिन्न सिद्ध करने पर भी एक प्रश्न उत्पन्न होता है - बौद्धदर्शन की मान्यतानुसार आत्मा क्षणिक है। बौद्धदर्शन के एक मत के अनुसार आत्मा पंचस्कन्धों से निर्मित है और वे पंचस्कन्ध क्षणिक हैं, एक क्षण तक ही रहते हैं, दूसरे क्षण में विनष्ट हो जाते हैं। ये स्कन्ध न तो कूटस्थनित्य है और न ही कालान्तर स्थायी (दो-चार क्षण तक ठहरने वाले) हैं। स्कन्धों के क्षणिकत्व के लिए अनुमान प्रयोग करते हैं - जैसे स्कन्ध क्षणिक है, क्योंकि सत् है, जो-जो सत् होता है वह-वह क्षणिक होता है, जैसे मेघमाला आदि।' तो वह शरीर के साथ नष्ट हो जाती है। अतः उसे शरीर से भिन्न सिद्ध क्यों करें?
इस शंका का समाधान इस प्रकार किया गया कि जैनदर्शन के अनुसार सभी पदार्थ एकान्त रूप से क्षणिक नहीं हैं। द्रव्य से नित्य है, केवल उसके परिणाम या पर्याय बदलती रहती हैं, जिससे वे क्षणिक है। अतः शरीर के साथ जीव का नाश नहीं माना जा सकता। शरीर तो आत्मा की पर्याय है, वह बदलती रहती है।
कुछ व्यक्तियों को अपने पूर्वजन्म का स्मरण होता है। यदि आत्मा को क्षणिक मान लें तो स्मरण नहीं हो सकेगा। जातिस्मरण ज्ञान से 900 संज्ञी भवों को स्मृति होती है। व्यावहारिकता में भी हम देखते हैं कि वृद्धावस्था में बाल्यावस्था का स्मरण होता है, किन्तु आत्मा का नाश नहीं होता। अतः पूर्वजन्म के शरीर के साथ आत्मा का सर्वथा नाश सम्भव नहीं है।
जैसे परदेश में गया हुआ व्यक्ति स्वदेश की बातों का स्मरण करता है, उसी प्रकार इस जन्म में आत्मा पूर्व जन्म के अनुभवों को स्मरण करता है। अतः आत्मा को नष्ट नहीं माना जा सकता। विज्ञान को क्षणिक न मानने पर जीव और शरीर के भिन्नत्व की सिद्धि
विज्ञान क्षण का पूर्णरूप से नाश मान लेने पर कई प्रश्न पैदा होते हैं, जैसे पूर्व के विज्ञान-क्षण तथा पश्चात् के विज्ञान क्षण सर्वथा अलग ही होंगे, ऐसी स्थिति में पूर्व विज्ञान द्वारा अनुभूत वस्तु का स्मरण उत्तरविज्ञान में सम्भव नहीं हो सकता। देवदत्त द्वारा
सूत्रकृतांग विवेचन, हिमचन्द्रजी मा.) पृ. 116 भोत्ता देहादीणं भोज्जत्तणत्तो णरो व्य भत्तस्स। संघातातित्तणत्तो अत्थि य अत्थि घरस्सेव।। गाथा 1669
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