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कारण होने से इन दोनों से भिन्न कर्ता होना आवश्यक है, वही आत्मा
(ब) जैसे दण्डादि कारण का अधिष्ठाता कुंभकार है, वैसे ही इन्द्रियाँ कारण हैं,
उनका कोई न कोई अधिष्ठाता अवश्य होना चाहिए, वही आत्मा है। (स) इन्द्रिय और विषय में आदान-आदेय भाव सम्बन्ध है। जैसे सण्डासी और
लोहे का आदान-आदेय भाव सम्बन्ध होने से आदाता लुहार है, वैसे ही
इन्द्रिय-विषयों के बीच में आदाता-आत्मा है। (द) देह भोग्य है, उसका कोई न कोई भोक्ता होना चाहिए। जैसे भोजन का
भोक्ता पुरुष है। वैसे ही देह का भोक्ता आत्मा है।'
इन सभी अनुमानों से आत्मा और शरीर की भिन्नता प्रतिपादित होती है। अर्थापत्ति प्रमाण से जीव और शरीर की भिन्नता
जिस पदार्थ का अन्य पदार्थ के बिना न होना, छहों प्रमाणों से निश्चित हो, वह पदार्थ अपनी सिद्धि के लिए जो अन्य अदृष्ट की कल्पना करता है, उसे अथपित्ति कहते हैं। जैसे - 'पीनोऽयं देवदत्तः दिवा न भुंक्ते' बिना खाए कोई मोटा नहीं हो सकता, यह सभी प्रमाणों से निश्चित है। परन्तु यहाँ देवदत्त का दिन में खाने का निषेध किया है, तो वह रात में खाता है तभी मोटा है। यहाँ देवदत्त के लिए रात में भोजन करने की बात नहीं कही गई है, फिर भी अर्थापत्ति प्रमाण से जानी जाती है। इसी प्रकार दीवार आदि पर लेप्य कर्म में पृथ्वी, जल, आदि पंचमहाभूत समुदाय होते हुए भी सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न आदि क्रियाएँ नहीं होती हैं, इससे निश्चित होता है कि सुख-दुःखों, इच्छा आदि क्रियाओं का समवायी कारण पंच भूतों से भिन्न कोई दूसरा पदार्थ है, वह पदार्थ है आत्मा ।
संताणोणातीओ परोप्परं हेतुहेतुभावातो।
देहस्सय कम्मरस, य गोतम! बीयंकुराणं व || विशेषा. गाथा 1665 ' अत्थि सरीरविधाता, पतिणियताकारतो घडरसेव।
अक्खाणं च करणत्तो, दण्डातीणं कुलालो व्व।। विशेषा. गाथा 1667 'अत्थेिदियविसयाणं आदाणादेय भावतोऽवस्सं कम्मार इवादाता लोए, संदास लोहाणं।। विशेषा. गाथा 1668
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