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________________ भव-भवान्तर तक चलती रहती हैं। इसलिए शरीर से भिन्न विद्यमान आत्मा को अभिलाषा रूप गुण का आधार मानना होगा।' कार्मण शरीर को मानने से - बालक का शरीर देहान्तर पूर्वक है, क्योंकि वह इन्द्रियादि से युक्त है। जो इन्द्रिय से युक्त है वह देहान्तरपूर्वक होता है। जैसे युवा शरीर से पहले बालक का शरीर है, और बालक शरीर से पहले जो शरीर था, वह पूर्वभवीय औदारिक शरीर नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो नष्ट हो चुका था। अतः उसके द्वारा बाल शरीर का निर्माण सम्भव नहीं है, अतः बाल-शरीर के कारण रूप कार्मण शरीर को मानना होगा। यह कार्मण-शरीर एकाकी नहीं हो सकता, उस शरीर को धारण करने वाला कोई तत्त्व अवश्य है, जो एक भव से दूसरे भव में जाता है। वही तत्त्व आत्मा है। अतः यह बात असिद्ध हो जाती है कि शरीर ही आत्मा है। सुख-दुःख को मानने से - सुख-दुःखादि अनुभवात्मक गुण हैं, जो ज्ञानरूप और अमूर्त हैं और ये स्वसंवेदन रूप प्रत्यक्ष आत्मा में दिखाई देते हैं, किन्तु ये शरीर के गुण तो नहीं हो सकते। क्योंकि शरीर जड़ मूर्त और चाक्षुष है। गुण गुणी-द्रव्य के बिना नहीं रहते हैं। उनका कोई न कोई आश्रय होना चाहिए। वह गुणी ही आत्मा है। बालक के सुख-दुःखादि अन्य सुख-दुःखादि पूर्वक हैं, क्योंकि वे अनुभवात्मक हैं। जो सुख-दुःखादि अनुभव बालक के सुख-दुःख के पूर्व के हैं, वह पूर्वभवीय शरीर से पृथक् होना चाहिए, क्योंकि पूर्वभवीय शरीर नष्ट हो जाने के कारण बालक के सुख-दुःख का हेतु नहीं बन सकता। अतः शरीर और आत्मा का भिन्न मानना ही उचित व तर्क संगत है। .. अन्य अनुमान से जीव और शरीर की भिन्नता - (अ) शरीर और कर्म का परस्पर कार्य-कारण भाव होने से भी बीजांकुर की तरह इन दोनों का सम्बन्ध अनादिकाल से है। शरीर कार्य और कर्म के पढमोत्थणाभिलासो, अण्णाहाराभिलास पुव्वोऽयं । जध संपत्ताभिलासोऽणुभूत्तित्तो सो य देहाधेओ।। विशेषा. गाथा 1662 बालशरीरं देहतरपुव्वं, इंदियात्तिमत्तातो।। जुवदेहो बालातिव स, जस्स देहो स देहि ति।। विशेषा. गाथा 1663 अण्णसुहदुक्खंपुव्वं सुहाति बालस्स संपत्तसुहं व। अणुभूतिमयत्तणत्तो, अणुभूति मयो य जीवोय।। विशेषा. गाथा 1664 183 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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