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इसी प्रकार आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है। यह भी देखा जाता है कि इमली या नीम्बू को हम आँखों से देखते हैं किन्तु पानी मुँह में आता है। अतः यह सिद्ध होता है कि आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है और वह प्रत्येक इन्द्रियों द्वारा तद्विषयक ज्ञान कर लेता है।
ज्ञान गुण का आधार होने से - जो प्रथम ज्ञान होता है वह अन्य ज्ञान से युक्त होता है। जैसे युवक का ज्ञान, बाल ज्ञान से युक्त होता है। वैसे ही बालक का ज्ञान भी अन्य ज्ञान पूर्वक होना चाहिए। बाल्यावस्था के ज्ञान से पहले जो ज्ञान है, वह शरीरादि से भिन्न ही होना चाहिए, क्योंकि पूर्वभवीय शरीर छूट जाने पर भी इस भव में वह ज्ञान बालक के ज्ञान में सहयोगी बनता है।
ज्ञान को गुण माना गया है, आत्मा के ज्ञान गुण मानस-प्रत्यक्ष द्वारा प्रत्यक्ष है, उसका कोई गुणी होना चाहिए। व्यक्त शरीर गुणी नहीं हो सकता, क्योंकि पूर्व जन्म का शरीर इस जन्म में नहीं होता है। गुण तथा गुणी एक होने से मानस प्रत्यक्ष से आत्मा भी प्रत्यक्ष है, जैसे रुपादि गुणों से घट-पट प्रत्यक्ष होता है। वैसे ही मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, इत्यादि अनुभूत वाक्यों से “मैं” इस ज्ञान से ग्रहण किया जाने वाला आत्म मानस प्रत्यक्ष है। क्योंकि 'मैं' यह ज्ञान, आत्मा का ही ज्ञानरुप है। तथा मेरा यह शरीर है, मेरा पुराना कर्म है, इत्यादि व्यवहारों से आत्मा शरीर से पृथक सिद्ध होती है। अभिलाषा रूप गुण का आधार होने से - बालक को प्रथम स्तनपान की जो आकांक्षा होती है, उसका कारण क्या है? तत्काल ऐसा संयोग नहीं बना, जिससे स्तनपान की इच्छा हुई। इसलिए यही कहा जायेगा कि बालक की प्रथम स्तनपान की अभिलाषा अन्य अभिलाषापूर्वक है। और वह अभिलाषा पूर्वभव से सम्बन्धित है, जो शरीर बदलने पर भी रहती है। यह सिद्ध होता है कि वह अभिलाषा शरीर से भिन्न है।
अभिलाषा ज्ञान गुण रूप है, अतः इसका गुणी कोई होना चाहिए। शरीर गुणी नहीं बन सकता, क्योंकि शरीर नष्ट हो जाता है, किन्तु अभिलाषाएँ
विण्णाणणंतरपुव्वं, बालण्णाणमिह णाणभावत्तो जध बालणाणपुव्वं, जुवणाणं तं च देहाधियं ।। गाथा 1661
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