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भगवान महावीर ने इसका समाधान इस प्रकार किया है - मद्य के प्रत्येक अंग में न्यूनाधिक रूप से मादकता उपलब्ध है, जैसे - महुए के फूल में भ्रमित करने का अंश है, गुड़ में मिठास और तृप्ति का स्वभाव है, पानी में प्यास बुझाने का गुण है। ये सब जब समुदाय रूप में मिलते हैं तब मादकता सम्पूर्ण रूप से प्रकट हो जाती है। किन्तु कोई भी प्राणी समर्थ नहीं है जो भूतों में आंशिक रूप से भी चैतन्य शक्ति बता सके, क्योंकि दोनों के धर्म अलग-अलग हैं, एक जड़ है और दूसरा चेतन।' इन दोनों में बहुत अन्तर है, जैसे कि -
जीव
अजीव
प्रजनन शक्ति
प्रजनन शक्ति नहीं
वृद्धि
नहीं
आहार ग्रहण, स्वरुप में परिणमन, विसर्जन
नहीं
जागरण, नींद, परिश्रम
नहीं
आत्मरक्षा के लिए प्रयत्न
नहीं
भय-त्रास
नहीं
गति जीव और अजीव (जड़ और चेतन) दोनों में होती है, किन्तु इच्छापूर्वक या सहेतुक गति-आगति तथा गति-आगति का विज्ञान केवल जीवों में होता है, अजीव पदार्थ में नहीं। जैसे कि एक रेलगाड़ी पटरी पर अपना बोझ लिए पवन-वेग से दौड़ सकती है, पर उससे कुछ दूरी पर रेंगने वाली एक चींटी को भी वह नहीं मार सकती। क्योंकि चींटी में चेतना है, वह इधर-उधर घूमती है, जबकि रेलगाड़ी जड़ है, उसमें वह शक्ति नहीं है। इस प्रकार जड़ और चेतन के अलग-अलग धर्म हैं, बिना चेतन की सहायता से जड़ वस्तु संचालित नहीं हो सकती।'
जति वा सव्वाभावो, बीसं तो कि तदंगणियमोथं ।
तस्सुदयणियमो वा अण्णेसु, वि तो भवेज्जाहि।। विशेषावश्कभाष्य, गाथा 1654 ' आचार्य महाप्रज्ञ, जैन दर्शन : मनन और मीमांसा, वही, पृ. 276-77
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