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तत्पश्चात् चैतन्य का नाश किस तरह होता है, यह बताया है, जैसे - वह मदशक्ति अमुक काल तक रहकर नष्ट हो जाती है, वैसे ही चैतन्य भी कालान्तर में विनाशक परिस्थितियों के मिलने से नष्ट हो जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि चैतन्य भूतों का धर्म है। जैसे मादकता महुए के फूल आदि से पृथक् नहीं रहती, वैसे ही चैतन्य भूत-समुदाय से पृथक नहीं रहता है, क्योंकि धर्म और धर्मी दोनों परस्पर अभिन्न होते हैं। अतः यह निश्चित है कि आत्मा और शरीर दोनों एक हैं।'
प्रस्तुत शंका का समाधान भगवान महावीर द्वारा इस प्रकार किया गया - जिस प्रकार मद्य के अवयवों में मादक शक्ति नहीं होती, उसी प्रकार पृथ्वी आदि भूत जड़ हैं इसलिए पृथ्वी आदि प्रत्येक भूत में चैतन्य न होने से भूत समुदाय में भी चैतन्य संभव नही है। (बालू के कण में तेल नहीं होता है तो बालू के ढेर में से भी तेल नहीं निकल सकता है) यदि कोई पदार्थ समुदाय से उत्पन्न होता है तो वह पदार्थ उस समुदाय के प्रत्येक अवयव में भी होना आवश्यक है, जैसे कि तिल के समुदाय में से तेल निकलता है तो वह तिल के प्रत्येक दाने में भी उपलब्ध होता है। परन्तु चैतन्य प्रत्येक भूत में उपलब्ध नहीं है अतः भूत समुदाय से भी चैतन्य की उत्पत्ति संभव नहीं है। इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि भूत समुदाय से भिन्न कोई ऐसा कारण (तत्त्व) उससे सम्बद्ध है जिससे कहा जा सकता है कि उस समुदाय द्वारा चैतन्य आविर्भूत होता है। इसलिए जीव शरीर से भिन्न है। भूतों के समुदाय में या प्रत्येक भूत में चैतन्य की उपलब्धि संभव है?
यदि यह मानें कि कोई पदार्थ स्वंतत्र अवस्था में उपलब्ध नहीं होने पर भी उन अवयवों का समुदाय होने पर उपलब्ध हो जाता है, जैसे मदिरा के प्रत्येक अवयव में मद नहीं है, किन्तु उनको मिलाने पर मद की उत्पत्ति होती है। वैसे ही प्रत्येक भूत में चैतन्य अनुपलब्ध होने पर भी भूत-समुदाय से चैतन्य उत्पन्न हो जायेगा।'
| “जध मज्जंगेसु मदो, वीसुमदिटठो वि समुदये होतुं। __कालंतरे विणस्सति, तध भूतगणम्मि चेतण्णं ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1651" २ पत्तेयमभावातो ण रेणुतेल्लं व समुदये चेता।
मज्जंगेसु तु मत्तो वीसुं पि ण सदसो पत्थि।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1652 भमि-धणि-वितण्हादी, पत्तेयं पि हु जधा मतंगेसु। तध जति भूतेसु भवे चेता, तो समुदए होज्जा।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1653
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