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शरीर दिखाई दिया। प्रजापति ने कहा - जिसे तुम देख रहे हो, वही आत्मा है। इस उत्तर से वैरोचन ने समझा कि देह ही आत्मा है।'
___ तैतेरीयोपनिषद् में जहाँ सूक्ष्म-सूक्ष्मतर तथा स्थूल आत्मस्वरूप बतलाया है, वहाँ सबसे पहले अन्नमय आत्मा का परिचय दिया है। “अन्न से पुरुष उत्पन्न होता है, अन्न से ही उसकी वृद्धि होती है, और अन्न में ही उसका लय हो जाता है। इस तरह अन्न देह को ही चाहिए। उपरोक्त विचारों का उद्भव देह को आत्मा मानने से हुआ।
वेदों और उपनिषदों में जीव व शरीर के पृथकत्व व अपृथकत्व विभिन्न विचारधाराएं हैं, 'तज्जीव तच्छरीरवादी' जो यह मानते हैं कि जब तक शरीर विद्यमान है तब तक ही आत्मा स्थित रहती है, किन्तु शरीर के नष्ट होते ही आत्मा भी नष्ट हो जाती है, क्योंकि शरीररुप में परिणत पंचमहाभूतों को चैतन्य प्रकट होता है, अतः उनके अलग-अलग होने पर चैतन्य भी नष्ट हो जाता है। शरीर के साथ ही चैतन्य-विनाश का कारण यह है कि शरीर से बाहर निकल कर कहीं अन्यत्र जाता हुआ चैतन्य प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता। इस कारण विद्वान वायुभूति को यह सन्देह हुआ कि जीव और शरीर पृथक् हैं या अपृथक? इस शंका का समाधान भगवान महावीर ने गणधरवाद में किया। आत्मा और शरीर की अभिन्नता के बारे में वायुभूति जी की शंका
वायुभूति जी की शंका थी कि - चेतना का उद्भव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश। इन 5 भूतों के समुदाय से होता है। जिस प्रकार मदिरा के निर्माण में जिस सामग्री का उपयोग होता है, जैसे महुवे का फूल, गुड़ और पानी आदि, उनमें अलग-अलग अवयवों में मादक शक्ति नहीं होती किन्तु इन सबको मिला देने पर मादक शक्ति से युक्त मदिरा बन जाती है। वैसे ही पृथ्वी आदि भूतों में स्वतंत्र रूप से चैतन्य नहीं होता पर जब चारों का एकत्रीकरण होता है तब चैतन्य प्रकट होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि भूत समुदाय शरीर ही जीव है।
' छान्दोग्य उपनिषद्, 8.8
तैतेरीय उपनिषद्, 2/1/2 1 स एव जीवस्तेव शरीरमिति वदितुं शीलमस्येति तज्जीव-तच्छरीरवादी - उद्धृत - सूत्रकृतांग विवेचन हिमचन्द्रजी) पृ. 90 — (क) विशेष्यावश्यकभाष्य, गाथा 1650
वसुधातिभूत समुदयसंभूता, चेतण त्ति ते संका।
पत्तेयमदिट्ठा वि हु, मज्जंगमदो व्व समुदाये।। (ख) स्याच्चेतनातस्तनुरेव जीवः, महावीर देशना, श्लो. 6, पृ. 136
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