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________________ लाइबनित्स ने मन और शरीर के कार्य-कारणवाद स्वीकार करके समस्या को समाहित करने का प्रयत्न किया। रेने देकार्ते ने Mind and body, मनस् और शरीर की निरपेक्ष सत्ता स्वीकार की, इन दोनों की क्रिया, स्वभाव, स्वरूप में भी भिन्नता का स्पष्ट प्रतिपादन किया।' इस प्रकार यह समस्या अनेक दर्शनों में रही है। इस समस्या का प्रस्तुतीकरण और समाधान जैन आगमों में व जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेष्यावश्यकभाष्य के गणधरवाद में समुचित रूप से किया है। आत्मा और शरीर के एकत्व व भिन्नत्व की दार्शनिक समस्या और उनके समाधान विशेषावश्यकभाष्य में आत्मा और शरीर की अवधारणा विभिन्न दर्शनों में तथा जैनदर्शन में आत्मा और शरीर की भिन्नता और अभिन्नता की चर्चा के पश्चात् यह चिन्तन करना है कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपनी विचारधारा किस प्रकार प्रस्तुत की है। विशेषावश्यकभाष्य के गणधरवाद में इन विषयों पर चर्चा की गई है। श्रमण भगवान महावीर के तृतीय गणधर वायुभूति के मन में गणधर बनने से पूर्व यह सन्देह था कि शरीर और आत्मा भिन्न है या अभिन्न? इस सन्देह की पृष्ठभूमि थी देहात्मवाद। आत्मा के अस्तित्व के बारे में जब विचार-विमर्श हो रहा था कि आत्मा क्या है? तब चिन्तकों ने अनुभव किया कि अपने भीतर जो विज्ञान एवं चेतनामय स्फूर्ति का अनुभव होता है, वह क्या है? अन्य जड़ वस्तुओं से स्वयं को भिन्न अनुभव कराने वाली और समस्त देह में व्याप्त शक्ति क्या है? इन प्रश्नों का सही उत्तर न मिलने पर उन्होंने शरीर को ही आत्मा मान लिया। छांदोग्योपनिषद् में एक कथा है – एक बार असुरों का स्वामी वैरोचन और देवताओं का अधिपति इन्द्र प्रजापति के पास ज्ञान प्राप्ति के लिए पहुंचे। प्रजापति ने दोनों को पानी के कुंड में अपना प्रतिबिम्ब देखने को कहा, और देख लेने के बाद पूछा - इस जल में तुम्हें क्या दिखाई दिया? तब उन्होंने कहा - इस जल कुंड में हमें अपना पूरा 'तुलसीप्रज्ञा 176 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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