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________________ करता है। चार्वाक् दार्शनिक चेतना शक्ति को भूतों का धर्म मानते हैं। इनकी सम्मति में चेतना शरीर की उपज है। आत्मा को भूत-जन्य सिद्ध करने के लिए ये कहते हैं, कि पाचन आमाशय की क्रिया का नाम है, श्वासोच्छ्वास फेफड़ों की क्रिया का नाम है। उनके अनुसार चैतन्य का प्रत्यक्षीकरण और संवेदन भौतिक शरीर में ही होता है। संवेदन करना शरीर का काम है, अतः जब तक शरीर रहता है तब तक हमें चेतना का संवेदन होता है, और उसकी परिसमाप्ति होते ही संवेदनकार्य भी नष्ट हो जाता है। जैसे दीवार पर चित्रित चित्र दीवार के गिरते ही विनाश को प्राप्त हो जाता है, उनका अस्तित्व दीवार के रहने तक ही रहता है। उसी प्रकार आत्मा या चेतना का अस्तित्व शरीर के विनाश के साथ समाप्त हो जाता है। अतः विश्व में सिर्फ एक ही तत्व है - जड़ तत्व। विश्व के समूचे कार्य भौतिक या जड़ तत्व पर ही आधारित हैं।' इस प्रकार नास्तिक दर्शन आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को भी नहीं मानते हैं और न ही मुक्ति या निर्वाण को मानते हैं। जबकि आस्तिक दर्शन आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, और इस तथ्य को भी मानते हैं कि आत्मा अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार उर्ध्व, अधो या तिर्यदिशाओं में जन्म लेता है। स्वर्ग-नरक की सुखद एवं दुःखद पगडण्डियों को तय करता है और तप, ध्यान, स्वाध्याय एवं संयम आदि साधना के द्वारा अनन्तकाल से बंधे कर्म-बन्धनों को समूलतः नष्ट कर निर्वाण को भी प्राप्त करता है। इन दो विचारधाराओं के कारण एक दार्शनिक समस्या पैदा होती है कि - आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है या नहीं? आत्मा और शरीर एक है या भिन्न-भिन्न है, शरीर के नष्ट होने पर क्या आत्मा (चेतन सत्ता) भी नष्ट हो जाती है? यह समस्या भारतीय दार्शनिकों के समक्ष ही नहीं थी, बल्कि पाश्चात्य दार्शनिक भी आत्मा और शरीर में क्या सम्बन्ध है। इस पर निरन्तर चिन्तन कर रहे थे। किसी ने अद्वैतवाद का समर्थन करके समस्या से मुक्ति पाने का प्रयत्न किया तो किसी ने द्वैतवाद को स्वीकृति देकर चेतन और जड़ में सम्बन्ध खोजने का प्रयत्न किया। बेनेडिक्ट स्पिनोजा अद्वैतवाद के समर्थक थे, उन्होंने मनस और शरीर को एक ही तत्व के दो पहलू के रूप में स्वीकार किया, अतः उन दो तत्वों में परस्पर सम्बन्ध की समस्या नहीं थी। ' मुनि फूलचन्द्र श्रमण, आत्मवाद, आत्माराम जैन प्रकाशन समिति, लुधियाना 175 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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