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चतुर्थ अध्याय आत्मा और शरीर के सम्बन्ध की समस्या और उसके समाधान
भूमिका
आत्मा, भारतीय संस्कृति के चिन्तन का मूल केन्द्र है। भारतीय विचारकों की समग्र चिन्तनधारा आत्म-चिन्तन के चारों ओर घूमती है। नास्तिक एवं अनात्मवादी माने जाने वाले चार्वाक् एवं बौद्ध दर्शन के चिन्तन का केन्द्र भी आत्मा (व्यक्ति) ही रहा है। भारत के आस्तिक एवं नास्तिक माने जाने वाले सभी दार्शनिकों, विचारकों एवं चिन्तकों ने आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया है, किन्तु आत्म-स्वरूप के सम्बन्ध में सब एक मत नहीं है। फिर भी जहाँ सभी आस्तिक दर्शन इस बात में एकमत हैं कि - आत्मा और शरीर भिन्न-भिन्न हैं, आत्मा स्वतंत्र द्रव्य है, वह वर्तमान योनि में प्राप्त शरीर का त्याग करके दूसरी योनि में जन्म लेकर अन्य शरीर को धारण करता है, तथा समस्त कर्म बन्धनों का नाश करके सिद्ध, बुद्ध व मुक्त भी बन जाता है। वहीं चार्वाक् दर्शन इस बात को नहीं मानता, वह आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार न कर शरीर को ही आत्मा मानता है। उसका कथन है कि - "चार या पाँच भूतों के मिलने पर शरीर में चेतना का प्रादुर्भाव होता है, और उनके अलग होते ही चेतना का नाश हो जाता है। इस कथन से सभी आस्तिक दर्शनों के लिए एक प्रश्न पैदा हो गया कि - वास्तव में आत्मा और शरीर भिन्न हैं या अभिन्न?" यही प्रश्न विशेषावश्यक में है, जो वायुभूति के मन में उद्भूत हुआ था।
भौतिकवाद के अनुसार आत्मा भौतिक ही है। चेतन गुण के होते हुए भी वह भूतों से पृथक् एवं स्वतंत्र अस्तित्व सम्पन्न नहीं है। इस लोक के अतिरिक्त परलोक, स्वर्ग-नरक एवं मोक्ष या परमात्मा आदि कुछ नहीं है। शुभाशुभ कर्मों का कर्ता एवं कर्मफल का भोक्ता आत्मा नाम का कोई नित्य पदार्थ नहीं है। विश्व में केवल चार तत्व हैं - पृथ्वी, जल, तेज और वायु। कुछ विचारक इन चार भूतों के अतिरिक्त आकाश को भी भूत मानते हैं। जैन आगमों में इस अवधारणा को तज्जीव-तच्छरीरवाद भी कहा है अर्थात् जो शरीर है वही जीव है। जबकि जैनदर्शन मुख्य रूप से दो तत्व मानता है - जड़ और चैतन्य | आत्मा और पुद्गल। चेतन जड़ से भिन्न है। शरीर जड़ है और आत्मा चैतन्य है। शरीर आत्मा का साधन है, उसके माध्यम से वह अपने आपको अभिव्यक्त
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