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________________ अर्थागमों के उद्गाताओं ने न केवल एकान्त शान्त स्थान पर बैठकर आत्म तत्त्व की विवेचना की और न ही आश्रमों में रहकर, कंदमूल खाकर जीवन जगत् की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया है, किन्तु उन्होंने सर्वप्रथम मन की मलिनता का प्रक्षालन किया, आत्मा को अध्यात्म के पावक में तपा कर स्वर्ण के सदृश्य निखारा। पंचमहाव्रतों की उत्कृष्ट साधना की, सुदीर्घकालीन तप आराधना की और अन्ततः घातिकर्मों को मूलतः नष्ट कर आत्मा में निहित अनन्त शक्तियों के संदर्शन भी किये। उसके अनन्तर उन्होंने सर्व जीवों की रक्षार्थ एवं कल्याणार्थ देशना भी प्रदान की। इसी विवक्षा के आधार पर जैनागमों में जिस प्रकार आत्मसाधना का वैज्ञानिक एवं क्रमबद्ध वर्णन-विवरण उपलब्ध होता है, उतना अन्य साहित्य में कथमपि संभव नहीं है। वेदवाङ्मय में आध्यात्म प्रधान चिन्तन अल्पमात्रा में है, लोक चिन्तन अधिक है, उपनिषद् में आध्यात्मिक चिन्तन है पर सर्वसाधारण के लिए उसे समझ पाना दुरुह है, क्योंकि उसमें ब्रह्मवाद व आध्यात्मिक विचारणा अधिक गम्भीर है। पर जैनागमों में दर्शन और जीवन, आचार और विचार, भावना और कर्त्तव्य का जैसा समीचिन समन्वय हुआ है, वैसा अन्य साहित्य में सर्वथा दुर्लभ है। अतः एव आगमों की महत्ता अपने आप में अपूर्व है, अनुपम है।' परिभाषा __ जैन वाङ्मय का प्रचुर प्राचीन विभाग जैन आगम साहित्य है, प्रस्तुत आगम साहित त्रिविध रूप से प्रश्रुत है जो इस प्रकार है – सुत्तागम, अत्थागम और तदुभयागम रूप है। वीतराग तीर्थंकर स्वयं सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है। आगम शब्द – 'आङ' उपसर्ग और 'गम' धातु से निष्पन्न हुआ है। 'आ' का अर्थ है समन्तात् अर्थात पूर्ण और 'गम्' धातु का अर्थ ज्ञान, गति या प्राप्ति है। आगम शब्द की व्युत्पत्ति - जो समग्रतः ज्ञानमय है अथवा ज्ञान में गमन करे किवा जो ज्ञान की प्राप्ति का आधार हैं, वे आगम कहलाते हैं। जैनेत्तर परम्परा में आगम - तंत्र वाङ्मय में - लक्ष्मीतंत्र में निर्दिष्ट है कि अनादिकाल से गुरू-शिष्य परम्परा ' से जो आगत शास्त्र हैं, वे आगम हैं। ' देवेन्द्रमुनि, जैन आगम मनन और मीमांसा, तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, 1977, पृ. 1 जैन आगम, वही, पृ. 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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