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प्रथम अध्याय जैन आगम एवं आगमिक व्याख्या साहित्य
जैन आगम साहित्य
__ जैन धर्म-दर्शन और संस्कृति रुपी सूरम्य प्रासाद वीतराग-सर्वज्ञ तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों के आधार पर आधारित है। प्रकारान्त में उसी को जैन वाङ्मय की अभिधा से अभिहित कर सकते हैं। जैन वाङ्मय से तात्पर्य समस्त सुत्तागम (श्रुत-आगम), अत्थागम (अर्थ-आगम) एवं तदुभयागम रूप शास्त्रों से हैं। सर्वज्ञ अर्थात् सभी को जानने वाले, वे आत्मदृष्टा होने के साथ-साथ विश्वद्रष्टा भी हैं, जो सर्वज्ञ और वीतराग हैं, वे तत्त्वज्ञान का यथार्थ रुप से निरूपण करते हैं। उनकी वाणी में वीतरागता सन्निहित है। एतदर्थ उनकी देशना सर्वथा निर्दोष रूप होती है, किंचित भी दोष की सम्भावना नहीं रहती है।
वैदिक परम्परा में स्थान जो वेद का है, बौद्ध परम्परा में जो स्थान त्रिपिटक का है, ईसाई धर्म में जो स्थान बाईबल का है, ईस्लाम धर्म में जो स्थान कुर-आन का है, वही स्थान जैन परम्परा में आगम-साहित्य का है।'
महत्त्व
जैन आगम साहित्य भारतीय साहित्य की अनमोल उपलब्धि है, अनुपम निधि है और ज्ञान-विज्ञान का अक्षय भण्डार है। जैनागमों का तलस्पर्शी अध्ययन करने से सहज ही परिज्ञात होता है कि यहां न केवल कमनीय कल्पना के अनन्त गगन में विचरण किया गया है और न अन्य मत मतान्तरों का खण्डन ही किया गया है। अपितु जैन आगमों में जीवन का सजीव एवं सार्थक रूप से विवेचन प्रस्तुत किया है। जीवनोत्थान की सप्राण प्रेरणा प्रदान की गई है, आत्मा की शाश्वत सत्ता को उद्घोषित किया है और उसकी विशुद्धि का पथ प्रदर्शित किया है। संयम-समता, तप-जप और त्याग-विराग से जीवन को दीप्तिमान करने का पावन सन्देश दिया है।
' डा. पद्मचन्द मुणोत, जिनवाणी, सम्यज्ञान प्रचारक मण्डल, वर्ष 59, अंक 1-4, पृ. 45 'देवेन्द्रमुनि, जैन आगम मनन और मीमांसा, तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, 1977, पृ. 4
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