SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ही जाति के प्राणियों के असंख्य प्रकार और असंख्य आकार 'कर्म' का अस्तित्व स्पष्ट रूप से करते हैं । हम देखते हैं कि व्यक्ति के पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय व आर्थिक जीवन में कितना अन्तर दिखता है। कर्म अस्तित्व का दूसरा प्रमाण - पूर्वजन्म व पुनर्जन्म । शंका- स्वभावादी, जगत् की विचित्रता स्वाभाविक मानते हैं, अतः कर्म को नहीं मानते । समाधान- स्वभाव को वैचित्र्यता का कारण मान लेने पर कई शंकाएं खड़ी हो जाती हैं-जैसे कि स्वभाव यदि मूर्त है तो वह कर्म है और अगर अमूर्त है तो वह सुख - दुःख देने वाला नहीं बन सकता। क्योंकि जो कर्ता होता है वह सहेतुक होता है, स्वभाव निष्कारण होने से कर्ता नहीं है, और जगत् विचित्रता का हेतु भी नहीं है। अतः कर्म को ही विचित्रता का हेतु मानना होगा । शंका- ईश्वरवादी के अनुसार ईश्वर ही संसार का सर्जक, पालक और संहारक हैं, अतः संसार का कारण कर्म नहीं ईश्वर हैं? समाधान- ईश्वरकृत संसार मानने पर बाधाएं उपस्थित होती हैं, कि शुद्ध आत्मा संसार नहीं बना सकते और माया सहित ईश्वर ने जगत् का निर्माण किया तो उस ईश्वर का निर्माण किसने किया? ऐसे अनेक प्रश्न उपस्थित होते है, अतः यही सिद्ध होता है कि संसार का कारण कर्म ही हैं। इस प्रकार समाधान प्राप्त कर गणधर अग्निभूति को निश्चित हुआ कि कर्म का अस्तित्व हैं। हम देखते हैं कि आत्मा की आन्तरिक योग्यता का जो तारतम्य है, उसका कारण कर्म है। कर्म के संयोग से वह (आन्तरिक योग्यता) आवृत्त होती है या विकृत होती है। कर्म के विलय से (असंयोग) उसका स्वभावोदय होता है। जब हम आत्मा के अस्तित्व को मानते है तो हमें उसको प्रभावित करने वाले तत्व को भी स्वीकार करना पड़ेगा । क्योंकि आत्मा के साथ सर्वाधिक घनिष्ट सम्बन्ध यदि किसी का है तो वह कर्म-पुद्गला का ही है वह भी विजातिय सम्बन्ध विचारणा की दृष्टि से है। इसके बाद परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है, वह कर्म की उपेक्षा कर आत्मा को प्रभावित नहीं कर सकती। बाह्य Jain Education International 172 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy