SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मार्ग भी कर्मसिद्धान्त के आधार पर प्रतिपादित किया। कर्मविषय पर अनेक विपुल ग्रन्थों की रचनाएं हुई हैं। जैसे कि कर्मग्रन्थ, कर्मविज्ञान, कर्ममीमांसा । प्रस्तुत तृतीय अध्याय में इसी कर्मसिद्धान्त के अस्तित्व पर समीक्षा की गई हैं। कर्म के स्वरूप और उसके बन्ध का संक्षिप्त रूप से वर्णन किया हैं, क्योंकि प्राणी को यदि कर्म का सम्यकज्ञान होगा तभी वह अपने धार्मिक, नैतिक एवं समग्र सामाजिक जीवन को आदर्श बना सकता हैं। इस दृष्टि से कर्म का चिन्तन बहुत जरूरी हैं कर्मबन्ध किस प्रकार होते हैं, कर्मों की प्रकृतियां कितनी हैं तथा बद्ध कर्म की स्थिति कितनी हैं, यह ज्ञान होना बहुत आवश्यक है । कर्म का अस्तित्व मानने में सभी दर्शन सहमत हैं किन्तु मात्र चार्वाक दर्शन वर्तमान जीवन तक ही कर्म और कर्म के फल को स्वीकार करते हैं। वेदों उपनिषदों में कुछ वाक्य ऐसे है जो द्विअर्थी हैं वे एकान्तवादियों को स्पष्टतया समझ नहीं आते, इसी कारण द्वितीय गणधर अग्निभूति के मन में शंका हुई कि वास्तव में कर्म का अस्तित्व हैं या नहीं? इस प्रश्न का समाधान श्रमण भगवान महावीर ने कई युक्तियों से किया। उन सभी समाधानों का इस अध्ययन में समाहित किया गया हैं । संक्षिप्त में वे समाधान इस प्रकार हैं : शंका- प्रत्यक्ष से कर्म सिद्ध नहीं है अतः उसका अस्तित्व ही नहीं हैं । समाधान- कर्म चतुःस्पर्शी हैं अतः परोक्षज्ञानियों को नहीं दिखाई देते, किन्तु सर्वज्ञों को कर्म प्रत्यक्ष हैं तथा सुख-दुःख कार्य (फल) प्रत्यक्ष ही है । शंका- अनुमान द्वारा कर्म की सिद्धि नहीं होती? समाधान- विविध अनुमानों द्वारा कर्म का अस्तित्व सिद्ध होता हैं, जैसे- सुख-दुःख रूप कार्य का हेतु कर्म हैं, कार्मण शरीर के द्वारा कर्म का अस्तित्व हैं, चेतन की क्रिया सफल होने के कारण कर्म की सिद्धि होती है। 'कर्म' के अस्तित्व का सर्वाधिक सबल प्रमाण है- जगत् का वैचित्र्य । जगत् प्राणियों की विविधरूपता, उनके सुख-दुःखों की विभिन्नता, उनकी आकृति - प्रकृति - संस्कृति में पृथकता, उनके संस्कारों एवं विकारों के चयापचय तथा एक Jain Education International 171 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy