________________
1.
2.
3.
गीता के अनुसार कर्म तीन प्रकार के हैं
कर्म - फल की इच्छा से जो शुभ कर्म किये जाते हैं, वे कर्म है।
विकर्म- वासनाओं की पूर्ति के लिए जो अशुभ कर्म किये जाते है, या फल की इच्छा से अथवा अशुभ भावना से जो दान, तप आदि शुभ कर्म किये जाते हैं, वे विकर्म कहलाते है ।
नोकर्म फलासक्ति रहित होकर अपना कर्तव्य मानकर जो भी कर्म किया जाता है, वह कर्म नोकर्म है ।
इस प्रकार गीता में भी विस्तृत रूप से कर्म के अस्तित्व को स्वीकारते हुए कर्मबन्धन के कारण व निवारण के हेतुओं पर विवेचन किया है । '
जितने भी आस्तिक दर्शन है, चाहे वे भारतीय हो अथवा पाश्चात्य, जो आत्मा की सत्ता में विश्वास रखते हैं, वे सभी कर्म की त्रैकालिक सत्ता स्वीकार करते है ।
भारतीय दर्शनों में जैन, बौद्ध, वैदिक और अन्य एशियायी दर्शनों, कन्पशियस, ताओ, झेन आदि सभी दर्शन कर्म की त्रैकालिक सत्ता के विषय में एकमत है। यहां तक कि मुस्लिम और ईसाई धर्म-दर्शनों का भी इस विषय में मतभेद नहीं है।
समीक्षा
जैन दर्शन में कर्म पर विशिष्ट और गम्भीर चिन्तन हुआ हैं । भगवान महावीर ने कहा हैं- “कम्मं च जाइ - मरणस्स मूलं" कर्म जन्म-मरण का मूल हैं ।
दार्शनिक जगत् में कर्म की त्रैकालिक सत्ता मान्य हैं, जितने भी आस्तिक दर्शन है, वे सब कर्म का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। किसी ने कर्म को आत्मा पर पूर्वजन्मों के स्थित संस्कार कहा तो किसी ने अदृष्ट और किसी ने अपूर्व । यह भी निश्चित है कि- शुभ कर्मों का फल शुभ मिलता है और अशुभकर्मों का फल अशुभ |
जैनदर्शन ने कर्म की सत्ता पर बहुत ही विस्तृत विवेचना की हैं। जीव की सूक्ष्मातिसूक्ष्म गतिविधियों की कर्म - सन्दर्भित व्याख्याएं की गई और आत्मा की मुक्ति का
डा. सागरमल जी जैन, जैन बौद्ध और गीता अध्ययन, भाग-1, वही, पृ. 347
Jain Education International
170
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org