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सांख्य मत में बताया है कि-लिंग शरीर अनादिकाल से पुरुष के संसर्ग में है, इस लिंग-शरीर की उत्पत्ति राग, द्वेष व मोह जैसे भावों से होती है, भाव तथा लिंग-शरीर अनादिकाल में भी बीजांकुर के समान कार्यकारण भाव है। जैसे-भावों व कार्मण शरीर में कार्यकारण भाव है। रागादि भाव प्रकृति के विकार है, ये तीन प्रकार के माने है1. प्रत्यय सर्ग 2. तान्मात्रिक सर्ग, 3. भौतिक सर्ग ।
योग दर्शन में कर्म के विपाक तीन प्रकार के बताये हैं - जाति, आयु और भोग।' मीमांसा दर्शन में कर्म
मीमांसा दर्शन का अभिमत है कि-मनुष्य जो कुछ अनुष्ठान करता है, वह क्रियारूप होने के कारण क्षणिक होता है, अतः उस अनुष्ठान से अपूर्व नामक पदार्थ का जन्म होता है। यही सब कर्मों का फल देता है। यह अपूर्व ही 'कर्म' है। अपूर्व की तुलना जैन दर्शन के द्रव्य कर्म से की जा सकती है।
उनके अनुसार-यह क्रम है-कामना जन्य कर्म-यज्ञादिप्रवृत्ति और यज्ञादिप्रवृत्ति जन्य अपूर्व।
वेद प्रतिपाद्य कर्म तीन प्रकार के हैं
काम्य कर्म- जो कर्म स्वर्ग आदि सुख को देने वाले पदार्थों के साधक हो। निषिद्ध कर्म- जिन कर्मों को करने से अनिष्ट हो, जैसे कि-मृत्योपरान्त नरक की
प्राप्ति आदि। मांस भक्षण, ब्राह्मण हत्या। 3. नित्यनैमेत्तिक कर्म- वे कर्म, जिन्हें करने पर कोई पुरस्कार या लाभ तो नहीं
मिलता, पर नहीं करने पर दोष लगता है- जैसे-संध्योपासना करना।
इस प्रकार मीमांसा 'कर्म' की चर्चा अपूर्व के रूप में की गई है। गीता में कर्म की अवधारणा
मनुष्य जो कुछ भी करता है या जो नहीं करने का मानसिक संकल्प या आग्रह रखता है वे सभी कायिक एवं मानसिक प्रवृत्तियां कर्म है।
' गणधरवाद, प्रस्तावना/दलसुखभाई मालवणिया, पृ. 145 ' डॉ. के.एल. शर्मा, जिनवाणी (कर्मसिद्धान्त विशेषांक), सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, पृ. 198
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