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कृत्य के आधार पर कर्म के जो चार भेद किये है- उनमें से एक जनक कर्म है और दूसरा उसका उत्थम्भक हैं। जनक-कर्म नये जन्म को उत्पन्न कर विपाक प्रदान करता है, किन्तु उत्थम्भक अपना विपाक प्रदान न कर दूसरों के विपाक में सहायक बन जाता है। तीसरा कर्म उपपीडक है जो दूसरे कर्मों के विपाक में बाधक बन जाता है। चौथा कर्म उवघातक है जो अन्य कर्मों के विपाक का घात कर अपना ही विपाक प्रकट करता है।
पाकस्थान की अपेक्षा बैद्ध दर्शन में चार भेद किए है गरुक, बहुल अथवा आचिण्ण तथा अभ्यस्त। इनमें गरुक तथा बहुल दूसरों के विपाक को रोककर पहले अपना फल प्रदान करते है। आसन्न का अर्थ है मृत्यु के समय किया गया, (पूर्व कर्म कैसे भी हो, परन्तु मरणकाल के समय के कर्म के आधार पर ही शीघ्र नया जन्म प्राप्त होता है। अभ्यस्त कर्म इन तीनों के अभाव में ही फल दे सकता है, ऐसा नियम है।'
न्यायवैशेषिकदर्शन में कर्म
न्यायदर्शन के अनुसार-राग, द्वेष और मोह इन तीन दोषों से प्रेरणा पाकर जीव मन-वचन-काया की प्रवृत्ति करता है, और उससे धर्म और अधर्म की उत्पत्ति होती है। ये धर्म-अधर्म संस्कार कहलाते है, इन्हीं 'संस्कार' को कर्म कहा जाता है।
__ वैशेषिक दर्शन में 24 गुण माने है, उनमें से एक अदृष्ट भी है, इसके दो भेद हैधर्म और अधर्म। यह अदृष्ट 'कर्म' वाचक है। इन दोनों दर्शन के मतानुसार यह कड़ी बताई है-दोष से संस्कार, संस्कार से जन्म, जन्म से दोष, पुनः दोष से संस्कार, यह बीजांकुरवत् परम्परा अनादिकाल से है। जैसे कि जैनदर्शन में द्रव्यकर्म और भावकर्म की परम्परा है। सांख्य-योगदर्शन में कर्म
सांख्य-योगदर्शन के अनुसार अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष और अभिनिवेश इन पांच क्लेशों से क्लिष्टवृत्ति उत्पन्न होती है। इस क्लिष्टवृत्ति में धर्माधर्म रूपी संस्कार उत्पन्न होता है। इस संस्कार को आशय, वासना, कर्म और अपूर्व भी कहा जाता है।
(क) अभिधम्मत्थसंग्रह-5/19
(ख) विसुद्धिमग्ग 19/15/16 2 जिनवाणी, कर्मसिद्धान्त विशेषांक, वही, पृ. 23
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