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________________ उपनिषद में अनेक कारण जैसे कि-काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत और पुरुष को विश्व-वैचित्र्य का कारण माना है।' ___ कुछ विद्वान मानते हैं कि- वेदसंहिता में 'कर्मवाद' का वर्णन है। वेदों में 'कर्मवाद' या 'कर्मगति' शब्द न हो किन्तु 'कर्मवाद' का उल्लेख अवश्य हुआ है। ऋग्वेद संहिता के मंत्र इस बात के ज्वलन्त प्रमाण है- शुभस्पतिः" (शुभ कर्मों के रक्षक), धियस्पतिः (सत्य कार्यों के रक्षक), "विश्वस्यकर्मणो धर्ता' (सभी कर्मों का आधार), आदि पद देवों के विशेषण रूप में व्यवहृत हुए है। इन मंत्रों से स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि- शुभ कर्म करने से अमरत्व की उपलब्धि होती है। कर्मों के अनुसार ही जीव अनेक बार संसार में जन्म लेता है, और मरता है। वेदमंत्रों में संचित और प्रारब्ध कर्मों का वर्णन है। देवयान और पितृयान का वर्णन करते हुए कहा गया है कि-श्रेष्ठ कर्म करने वाले लोग देवयान से ब्रह्मलोक को जाते हैं, और साधारण कर्म करने वाले पितृयान से चन्द्रलोक जाते है तथा निकृष्ट कर्मों के कारण वृक्ष, लता आदि स्थावर जीवों में जन्म लेता है। इस प्रकार जब आत्म विद्या के कारण लोगों की श्रद्धा यज्ञों से हटने लगी, तब 'कर्म' का रहस्य प्रत्यक्ष में आया। कर्म की प्रशंसा करते हुए वे कहते हैं कि पुण्य करने से मनुष्य श्रेष्ठ बनता है और पाप करने से निकृष्ट। कुछ स्मार्त विद्वानों ने 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों तथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, संन्यास और वानप्रस्थ, इन चार आश्रमों के नियत कर्तव्यों एवं मर्यादाओं को पालन करने को 'कर्म' कहा गया है। इस प्रकार वैदिक परम्परा में कर्म का विकास हुआ बौद्धदर्शन में कर्म बौद्ध परम्परा ने भी कर्म की अदृष्ट शक्ति पर चिन्तन किया है। उसका अभिमत है कि-जीवों में जो विभिन्नता/विचित्रता दृष्टिगोचर होती है, वह कर्मकृत है। लोभ (राग), द्वेष और मोह से कर्म की उत्पत्ति होती है। राग-द्वेष और मोहयुक्त होकर प्राणी मन-वचन और काया की प्रवृत्तियां करता हैं और राग-द्वेष और मोह को उत्पन्न करता ' श्वेताश्वतर उपनिषद 12 बृहदारण्यक उपनिषद 3-2-13 ३ कर्मविज्ञान भाग 1, वही, पृ. 357 166 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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