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डॉक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार "कर्मफल का सिद्धान्त भारतवर्ष की अपनी विशेषता है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त खोजने का प्रयत्न अन्यान्य देशों के मनीषियों में भी पाया जाता है, परन्तु इस कर्मफल का सिद्धान्त और कहीं भी नहीं मिलता है।"
सुप्रसिद्ध प्राच्य विद्याविशारद कीथ ने सन् 1909 की रॉयल एशियाटिक सोसायटी की पत्रिका में एक बहुत विचारपूर्ण लेख लिखा, उसमें वे लिखते हैं-भारतीयों के कर्म-बन्ध का सिद्धान्त निश्चय ही अद्वितीय है। संसार की समस्त जातियों से उन्हें यह सिद्धान्त अलग कर देता है। जो कोई भी भारतीय धर्म और साहित्य को जानना चाहता है, वह यह उक्त सिद्धान्त जाने बिना अग्रसर नहीं हो सकता। वैदिककाल में कर्म
वैदिक युग में महर्षियों को कर्म सम्बन्धी ज्ञान था या नहीं? इस पर विज्ञों के दो मत है। कतिपय विज्ञों का स्पष्ट अभिमत है कि वेद-संहिता ग्रन्थों में 'कर्म' का वर्णन नहीं आया, तथा कुछ विद्वानों का मानना है कि-वेदों के रचयिता ऋषिगण कर्मवाद के ज्ञाता थे।
जिनका मानना है कि वेदों में कर्म की चर्चा नहीं है, उनके मतानुसार-वैदिककाल में ऋषियों ने प्राणियों में रहे हुए वैविध्य और वैचित्र्य का अनुभव किया, पर उन्होंने उसके मूल की गवेषणा अन्तरात्मा में न कर बाह्य जगत् में की। किसी ने सृष्टि की उत्पत्ति का कारण भौतिक तत्व को माना तो किसी ऋषि ने प्रजापति ब्रह्मा को स्वीकार किया। इस प्रकार वैदिक युग का सम्पूर्ण तत्व चिन्तन देव और यज्ञ की परिधि में ही विकसित हुआ।
डॉ. दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार 'वैदिक परम्परा में वेदों से लेकर ब्राह्मणकाल तक यज्ञ, याग् आदि धार्मिक क्रियाओं को 'कर्म' कहा गया। वैदिक काल के प्रसिद्ध अश्वमेघ, नरमेघ, गोमेघ, पुत्रकाम, स्वर्गकाम आदि वेद-विहित यज्ञों के लिए जो क्रिया की जाती थी वे सब 'कर्म' माने गये।
आरण्यक व उपनिषद युग में देववाद व यज्ञवाद का महत्व कम होने लगा और ऐसे नवीन विचार समक्ष आये जिनका संहिताकाल व ब्राह्मणकाल में अभाव था। किन्तु आरण्यक व उपनिषदकाल में अदृष्ट रूप कर्म का वर्णन मिलता है। कर्म को मानने पर भी विश्व-वैचित्र्य का कारण कौन है, इस तथ्य पर एकमत नहीं रहा। श्वेताश्वतर
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