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(6) अपवर्तना- बद्धकर्मों की स्थिति तथा अनुभाग में अध्यवसाय-विशेष से कम कर
देने का नाम अपवर्तना हैं। इसे आकर्षण भी कहते हैं। जैसे साधुवन्दना के __ फलस्वरूप नौवे वासुदेव श्रीकृष्ण ने छठी नरक की स्थिति तृतीय नरक तक कर
ली। (7) संक्रमण- किसी अध्यवसाय विशेष से सजातिय कर्म-प्रकृतियों का परस्पर में
परिवर्तन करना संक्रमण कहलाता हैं। यह संक्रमण कर्म की मूल प्रकृतियों में नहीं होता हैं बल्कि उत्तरप्रकृतियों में होता हैं। फिर भी संक्रमण के कुछ अपवाद हैंआयुष्यकर्म की चार प्रकृतियों, दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय में संक्रमण नहीं होता।
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उपशमन- कर्मों के उदय को कुछ समय के लिए रोक देना उपशम हैं। उपशम में कर्मों की सत्ता समाप्त नहीं होती, उनकी शक्तियों को दबा दिया जाता हैं। जिससे राख से दबी अग्नि की तरह निष्क्रिय होकर सत्ता में बने रहते हैं। निधत्ति- कर्म की उदीरणा और संक्रमण के सर्वथा अभाव की दशा को निधित्त कहा जाता हैं। किन्तु इस अवस्था में उद्वर्तना तथा अपवर्तना की सम्भावना रहती
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हैं।
(10) निकाचना- कर्म की वह अवस्था निकाचना कहलाती है जिसमें उद्धर्तन, अपवर्तन
संक्रमण और उदीरणा सम्भव ही न हो, अर्थात् जिस रूप में इतना इस कर्म का
बन्धन हुआ हो उसी रूप में उसे अनिवार्य रूप से भोगना पड़ता है।' जैनेत्तर दर्शनों में कर्म की अवधारणा
भारतीय दर्शन जीवन दर्शन है। यहां के दार्शनिकों ने जीवन के गम्भीर व गहन प्रश्नों पर चिन्तन-मनन किया है। एतदर्थ यहां आत्मा, परमात्मा, लोक, कर्म आदि तत्वों पर गहराई से चिन्तन-मनन व विवेचन किया गया है। दर्शन की दुनियां में कर्मवाद् का अपना एक विशिष्ट स्थान है।
' (क) कर्मविज्ञान भाग 5, वही, पृ. 83-117
(ख) कर्ममीमांसा (मधुकरमुनि) पृ. 103-113 (ग) जैन भारती, 1-1-2003
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