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कर्मों का बन्ध होने के पश्चात् होने वाली दस मुख्य क्रियाएं हैं, जो निम्न प्रकार
से हैं
बन्ध- मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से जीव के असंख्य आत्म-प्रदेशों में कम्पन होता हैं। फलतः जिस क्षेत्र में आत्म प्रदेश हैं, उसी क्षेत्र में विद्यमान अनन्तानन्त कर्मयोग्य पुद्गल आत्मा के प्रत्येक प्रदेश के साथ चिपक जाते हैं, यही बन्ध कहलाता हैं। एक अपेक्षा से बन्ध के चार भेद हैं(क) बद्ध (ख) स्पृष्ट (ग) बद्ध-स्पर्श-स्पृष्ट (घ) निधत्त दूसरी अपेक्षा से भी बन्ध के चार भेद किये जाते हैं
(क) प्रकृतिबन्ध (ख) स्थितिबन्ध (ग) अनुभागबन्ध (घ) प्रदेशबन्ध (2) सत्ता- आत्म प्रदेशों के साथ रहे हुए कर्मदलिक उसके उदयकाल पर्यनत आत्मा __ के साथ एक क्षेत्रावगाह रूप से अवस्थित रहते है। कर्मबन्ध होने के बाद जब तक
उदय में नहीं आता, तब तक सत्ता में रहता हैं। कर्मबन्ध से फलप्राप्ति के बीच की
अवस्था ‘सत्ता' कहलाती हैं। (3) उदय- जब सत्तास्थित कर्म संस्कार जाग्रत होकर नींव को नया कर्म करने के
लिए अव्यक्तरूप से प्रेरित प्रोत्साहित करते हैं, तब उन बद्धकर्मों की उदयावस्था
कहलाती हैं। कर्म का नियत समय पर फल देने को तत्पर होना 'उदय' हैं। (4) उदीरणा- कालमर्यादा पूर्ण होने, उदय में आने से पूर्व ही कर्मफल को भोग लेना।
जिस प्रकार प्रयत्न द्वारा समय से पहले ही फल पकाये जाते हैं, उसी प्रकार जिन कर्मों का उदयकाल न होने पर उन्हें उदय में खींच कर लाया जाता हैं। तपश्चर्या, प्रायश्चित्त आदि द्वारा उन्हें उदय में आने से पूर्व ही भोग लिया जाता
हैं।
उद्वर्तना- स्थिति और अनुभाग की वृद्धि को उद्वर्तना कहते हैं। इसमें कर्म-स्थिति का दीर्धीकरण और रस का तीव्रीकरण होता हैं। यह नवीन कर्मबन्ध के समय विद्यमान कषाय की तीव्रता-मन्दता पर आधारित हैं।
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