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समय में ही जीव के कषाय रूप परिणामों का निमित्त पाकर उनमें अनन्तगुणा रस पैदा हो जाता है, जो जीव के गुणों का घात या उन पर अनुग्रह आदि करता है, उसे ही रसबन्ध कहते हैं। जैसे-सूखा, घास नीरस होता है, लेकिन ऊंटनी, भैंस, गाय और बकरी के पेट में पहुंच कर दूध (क्षीररस) के रूप में तथा चिकनाहट में न्यूनाधिकता देखी जाती है उसी प्रकार एक ही कर्म परमाणु भिन्न-भिन्न कषाय रूप भावों का निमित्त पाकर भिन्न-भिन्न रस वाले हो जाते हैं जो उनमें फल प्रदान करने की शक्ति पैदा हो जाती है। इसी का नाम रसबन्ध या अनुभागबन्ध है।'
स्थितिबन्ध
बद्धकर्मस्कन्ध जितने समय तक जीव के साथ सम्बद्ध रहते हैं और उसके बाद झड़ जाते हैं, उस कालमान को स्थितिबन्द कहा जाता हैं।
कर्मग्रन्थ के अनुसार स्थितिबन्ध का लक्षण है-अध्यवसाय से गृहीत कर्मदलिक की स्थिति के काल का नियम।
बन्धा हुआ कर्म कब तक जीव के साथ सम्बद्ध रहेगा? इस प्रकार का निर्धारण करना स्थितिबन्ध का कार्य है। स्थितिबन्ध का प्रमुख कारण कषाय है।
मूल कर्मों की जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति निम्न तालिकानुसार हैं| क्र.सं. कर्म के नाम । जघन्य स्थिति
उत्कृष्ट स्थिति | ज्ञानावरणीय कर्म । अन्तमूहुर्त की | 30 कोटाकोटि सागरोपम दर्शनावरणीय कर्म | अन्तमूहुर्त की | 30 कोटाकोटि सागरोपम वेदनीय कर्म 12 मूहुर्त की 30 कोटाकोटि सागरोपम मोहनीय कर्म अन्तमूहुर्त की 170 कोटाकोटि सागरोपम | आयुष्य कर्म अन्तमूहुर्त की
33 कोटाकोटि नाम कर्म
8 मूहुर्त की | 20 कोटाकोटि सागरोपम गौत्र कर्म | 8 मूहुर्त की 20 कोटाकोटि सागरोपम अन्तराय कर्म अन्तमूहुर्त की 30 कोटाकोटि सागरोपम
1 कर्मविज्ञान भाग 4, पृ. 450
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