________________
यदि योगों की प्रवृत्ति मन्द होगी तो कर्मपुद्गलपरमाणुओं की संख्या का बन्ध भी कम होगा। इसे ही आगमिक परिभाषा में प्रदेशबन्ध कहते हैं।
प्रदेशबन्ध को स्पष्ट रूप से समझाने के लिए भगवती सूत्र में यह दृष्टान्त दिया गया है-भगवान महावीर गौतम से कहते है-एक सरोवर में जो जल से भरा हुआ हो, यदि कोई व्यक्ति एक बड़ी सौ छिद्रों वाली नौका छोड़े तो वह नौका भरते-भरते जल से परिपूर्ण हो जायेगी। उसी प्रकार जीव और पुद्गल परस्पर बद्ध, स्पृष्ट, अवगाढ़ होकर तथा परस्पर एकमेक होकर रहते हैं।
___इसी प्रकार आत्मप्रदेशों और कर्मपुद्गल-प्रदेशों का सम्बन्ध प्रदेशबन्ध हैं। प्रदेशबन्ध और प्रकृतिबन्ध योगों पर आधारित है। अनुभागबन्ध (रसबन्ध)
जीव को कर्मबन्ध के उत्तरकाल में शुभ या अशुभ, पुण्य या पाप कर्मों का फल किस-किस तीव्र-मन्द-मध्यम रूप से भोगना है, उसका पूरा दारोमदार मुख्यतया रसबन्ध या अनुभागबन्ध पर है। रसबन्ध का लक्षण इस प्रकार बताया गया है- "ग्रहण या आकर्षित किये जाते हुये कर्म पुद्गलों में ज्ञानादिगुणों को रोकने के उस-उस स्वभाव के अनुसार जीव पर अनुग्रह या उपघात करने का सामर्थ्य निश्चित होता हैं, वह रसबन्ध है।"
तत्वार्थसूत्र में अनुभागबन्ध का लक्षण इस प्रकार बतलाया गया है-विपाक अर्थात्-विविध प्रकार के पाक, फल देने की शक्ति को ही अनुभाव या अनुभाग कहते हैं।'
सवार्थसिद्धि में बताया गया हैं कि उस-उस कर्म के रस विशेष को अनुभाव कहते हैं तथा कर्मपुद्गलों के पृथक-पृथक स्वगत-सामर्थ्यविशेष को भी अनुभाग कहते हैं।
प्रश्न हो सकता है कि एक ही प्रकार के कर्मपरमाणु भिन्न-भिन्न रस वाले कैसे हो जाते हैं? इसका समाधान है कि-जीव के साथ बन्धने से पहले कर्म-परमाणुओं में उस प्रकार का विशिष्ट रस (फलजनक शक्ति) नहीं रहता, उसी समय वे प्रायः निरस और एकरूप रहते हैं, किन्तु जब वे जीव के द्वारा ग्रहण किये जाते है, तब ग्रहण करने के
' "विपाकोऽनुभावः सःयथानाम" तत्त्वार्थसूत्र, 8/22-22 2 "तद्रस-विशेषोऽनुभवः" सवार्थसिद्धि 8/3/379
160 For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org