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________________ ___67 प्रकृतियां- 14 पिण्ड प्रकृतियों में वर्णचतुष्क के 20 के स्थान पर कुल चार तथा बन्धन और संघात के 5-5 कम करने पर, 4+35+त्रस10+स्थावर10+8 प्र.=67 भेद हुए। 103 प्रकृतियां- 93 पूर्वोक्त, बन्धननामकर्म के 10 और मिलाने पर। 7. गोत्रकर्म- जिस कर्म के उदय से जीव जाति और कुल की अपेक्षा से उच्च-नीच, पूज्य-अपूज्य, कुलीन-अकुलीन कहलाता है, उसे गौत्रकर्म कहते हैं। जैसे-कुम्भकार, छोटे बड़े दूध-घी के योग्य तथा मद्य आदि रखने के योग्य बर्तन तैयार करता है, उसी प्रकार यह कर्म भी जीव को कभी आदरास्पद-उच्च और कभी नीच-अनादरास्पद बना देता है। गौत्रकर्म की दो प्रकृतियां है- 1. उच्च गौत्र व 2. नीच गौत्र। अन्तरायकर्म- आत्मा की अनन्तशक्तियों को कुण्ठित करने वाला अन्तरायकर्म है। "दानादि परिणाम में व्याघात का कारण होने से इस कर्म को अन्तरायकर्म कहते हैं। अन्तरायकर्म की तुलना राजा के भण्डारी से की गई है। राजा का भण्डारी राजा के द्वारा आदेश मिलने पर भी दान आदि देने में आनाकानी करता है, विघ्न डालता है। वैसे ही यह कर्म जीव के गुणों में बाधा डालता है। अन्तरायकर्म की पांच उत्तर प्रकृतियां हैं- (क) दानान्तराय (ख) लाभान्तराय (ग) भोगान्तराय (घ) उपभोगान्तराय (ङ) वीर्यान्तराय कर्म।' प्रदेशबन्ध ___ कर्मबन्ध के समय आत्मा के साथ कार्मणवर्गणा का सम्बन्ध जितनी संख्या या परिमाण के साथ होता है। वह प्रदेशबन्ध कहलाता है। किस जीव ने कार्मणवर्गणा के कितने स्कन्धों को कितने परिमाण या संख्या में ग्रहण किया है, इसका निर्णय प्रदेशबन्ध से होता है। मन-वचन और काया की प्रवृत्ति अर्थात् इन तीनों योगों की चंचलता जितनी अधिक होगी, आत्मा के साथ कार्मणवर्गणा के स्कन्ध उतने ही अधिक सम्बद्ध होंगे। और ' गोयकम्मं तु दुविहं, उच्चनीय च आहियं" उत्तराध्ययन 33/14 2 "विघ्नकरणम अन्तरायस्य" तत्त्वार्थसूत्र 8/14 3 "दाणे लाभे य भोगे उवभोगे वीरिए तहा" उत्तराध्ययन, 33/7 159 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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