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________________ चारित्रमोहनीय कर्म- आत्मा को अपने स्वभाव की प्राप्ति या अपने आत्मस्वरूप में रमण करना, चारित्र है। चारित्र का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है- जो कर्मों के चय-संचय को रिक्त खाली करता है, उस अनुष्ठान को चारित्र कहते हैं।' आत्मा के इस चारित्र गुण का घात करने वाले कर्म को चारित्रमोहनीय कर्म कहते हैं। इसको दो भागों में विभक्त किया है- (क) कषायमोहनीय (ख) नोकषायमोहनीय। कषायमोहनीय कर्म- जिस कर्म के कारण क्रोधदि कषायों की उत्पत्ति हो, उसे कषायमोहनीय कर्म कहते है। इसके निम्न 16 प्रकार है : (1) क्रोध (2) मान (3) माया (4) लोभ इन चारों कषायों के तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र और मन्द स्थिति के कारण प्रत्येक के चार-चार प्रकार बताये गये है। जो क्रमशः अनन्तानुबन्धी (तीव्रतम स्थिति) अप्रत्याख्यानी (तीव्रतर स्थिति) प्रत्याख्यानी (तीव्र स्थिति) और संज्वलन (मंद स्थिति) के नाम से प्ररूपित किये गये हैं। (1) नोकषायमोहनीय- जो कषाय तो न हो, किन्तु कषाय के सहवर्ती हो। कषायों को उत्पन्न करने में तथा उद्दीपन करने में जो सहायक हो, उन्हें नोकषाय कहते हैं। इसके 9 भेद हैं (1) हास्य (2) रति (3) अरति (4) भय (5) शोक (6) जुगुप्सा (7) स्त्रीवेद (8) पुरुषवेद व (9) नपुंसक वेद । 5. आयुष्य कर्म- जिस कर्म के प्रभाव से जीव भव-विशेष में, योनि विशेष में तथा नियत शरीर में नियत कालावधि तक रूका रहे। जैसे-दण्ड प्राप्त मानव को हडिबन्धन में उतने काल तक रोका जाता है जितनी अवधि की उसकी सजा हो, उसी प्रकार आयुष्कर्म जीव को नियत अवधि तक उसी देह में या भव में रोके रखता है। आयुकर्म की उत्तर प्रकृतियां चार हैं | "कर्मणाचयं रिक्ता करोति इति चारित्रम्" धवला 6/11 २ "कसायमोहणिज्जं तु, नोकसायं तहेव य, उत्तराध्ययन 33/10 ' जीवस्स अवठ्ठाणं करेदि, आऊ हडिव्वणरं" गोम्मटसार, कर्मकाण्ड 11 156 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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