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________________ 3. 4. (1) निद्रा (2) निद्रा - निद्रा (3) प्रचला (4) प्रचला - प्रचला (5) स्त्यानगृद्धि' वेदनीय कर्म - जिस कर्म के प्रभाव से वेदन अर्थात् अनुभव होता है, वह वेदनीय कर्म कहलाता हैं। इस कर्म से सुख - दुःख का अनुभव होता है । वेदनीय कर्म की उपमा शहद लिपटी हुई तलवार से की गई है। जिस प्रकार तलवार की धार पर लगे हुए शहद को चाटने से सुख का अनुभव होता है, उसी प्रकार सातावेदनीयकर्म के उदय से सुख की अनुभूति, परन्तु तलवार के चाटने पर जिहवा कट जाने पर कुछ देर बाद दुःख का अनुभव होता है, उसी प्रकार असातावेदनीय कर्म के उदय से दुःख का अनुभव भी होता है । इसकी दो प्रकृतियां हैं (1) सातावेदनीय (2) असातावेदनीय मोहनीय कर्म- जिसके द्वारा आत्मा मूढ़ बनकर अपने हिताहित का कर्तव्य - अकर्तव्य का, कल्याण-अकल्याण का भान भूल जाता है। जैसे- मद्यपान करके मनुष्य भले-बुरे का विवेक खो बैठता है, वैसे ही मोहनीय कर्म के उदय से जीव सत्-असत् के विवेक से रहित होकर परवश हो जाता है । 2 मोहनीय कर्म की मुख्य दो प्रकृतियां - (क) दर्शनमोह (ख) चरित्रमोह दर्शनमोहनीय कर्म- जो पदार्थ जैसा है, उसे उसी रूप में समझना यानि तत्वों पर श्रद्धा, रूचि, प्रतीती करना दर्शन है। इसको घात करने वाले, आवृत्त करने वाले कर्म को दर्शनमोहनीय कर्म कहते हैं । इसके तीन प्रकार हैं (1) सम्यक्त्वमोहनीय (शुद्ध) (2) मिथ्यात्वमोहनीय ( अशुद्ध) (3) मिश्रमोहनीय (अर्धशुद्ध) * 1 "चक्षुरचक्षुरधि केवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचलाप्रचला, स्त्यानगृध्यश्च तत्वार्थसूत्र 8 / 6 2 “मज्जं व मोहणीयं" कर्मग्रन्थ भाग 1, गाया - 13 3 "दुविहं दंसणं चरणं मोहा" कर्मग्रन्थ 1/13 4 "दंसणमोहं तिविहं सम्मं मीसं तहेव मिच्छतं कर्मग्रन्थ 1/14 Jain Education International 155 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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