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(ख) श्रुतज्ञानावरणीय- इन्द्रिय और मन की सहायता से शास्त्रों को पढ़ने और सुनने
से जो बोध होता है ऐसे श्रुतज्ञान को आवृत्त करने वाला कर्म श्रुतज्ञानावरणीय
कर्म कहलाता हैं। (ग) अवधिज्ञानावरणीय- मन और इन्द्रियों की अपेक्षा न रखते हुए केवल आत्मा के
द्वारा रूपी अर्थात् मूर्त पदार्थों का जो ज्ञान होता है' ऐसे अवधिज्ञान को आवृत्त
करने वाला कर्म अवधिज्ञानावरणीय कर्म कहलाता हैं। (घ) मनःपर्यवज्ञानावरणीय- इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना द्रव्य-क्षेत्र काल
भाव की अपेक्षा से मर्यादापूर्वक जो ज्ञान संज्ञी जीवों की मनोगत पर्यायों को जानता है इन मनोगत पर्यायों को जानने में रूकावट डालने वाला मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्म कहलाता हैं।
(ङ) केवलज्ञानावरणीय- इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना त्रिकाल एवं
त्रिकालवर्ती समस्त मूर्त-अमूर्त ज्ञेय पदार्थों को एक साथ हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष जानने की शक्ति रखता है ऐसे केवलज्ञान को आवृत्त करने वाला केवलज्ञानावरणीय कर्म कहलाता हैं। दर्शनावरणीय कर्म- जो कर्म आत्मा की दर्शनशक्ति पर आवरण डालकर, उसे प्रकट होने से रोकता है, सामान्यबोध पर आवरण बनकर छा जाता है, जीव को पदार्थ की साधारण जानकारी नहीं होने देता वह दर्शनावरणीय कर्म कहलाता है। दर्शनावरणीय कर्म की उपमा द्वारपाल से दी गई है। जिस प्रकार शासक के दर्शन के लिए उत्सुक व्यक्ति को द्वारपाल रोक देता है इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म दर्शन-शक्ति को अवरूद्ध कर देता हैं। दर्शनावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियां 9 हैं। मुख्य चार प्रकार है
(1) चक्षुदर्शनावरणीय कर्म (2) अचक्षुदर्शनावरणीय कर्म (3) अवधिदर्शनावरणीय कर्म (4) केवलदर्शनावरणीय कर्म। शेष पांच प्रकृतियां दर्शन के आवरण रूप निद्रा की है
' "रूपिष्वधेः" तत्वार्थसूत्र 1/28 2 "सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य" तत्वार्थसूत्र 1/30
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