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(2)
आत्मा के अक्षय स्थिति गुण को रोककर जन्म-मरणादि का अनुभव कराने वाला आयुषकर्म है।
(3)
आत्मा के अरूपित्व गुण को दबाकर मनुष्यादि रूप ग्रहण करने को बाध्य करने वाला तथा जीव को पूर्ण या विकल अंग-प्रत्यंगादि शरीर, यश-अपयश, वर्ण-गन्धादि, नाना प्रकार के विकारजनित विभिन्नताओं को प्राप्त कराने वाला नामकर्म है।
(4) आत्मा के अगुरूलघुत्व गुण को दबा कर उच्च या नीच कुल का व्यवहार कराने
वाला गोत्र कर्म है।' उत्तर प्रकृतिबन्ध (1) ज्ञानवरणीय कर्म- जिसके द्वारा वस्तु का विशेषबोध यानी साकार-उपयोग हो
उसे ज्ञान कहते हैं। नाम, जाति, गुण, क्रिया आदि सहित जगत् के समस्त पदार्थों का विशेष बोध जिसके द्वारा हो, उसे ज्ञान कहते हैं। उस ज्ञान का जिसके द्वारा आच्छादान हो उसे ज्ञानवरणीय कर्म कहा गया है। ज्ञानावरणीय कर्म की उपमा पर्दे से दी गई है। जैसे पर्दे से ढंकी चीज का ज्ञान नहीं होता, वैसे ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से सम्यग्ज्ञान नहीं हो पाता। ज्ञानावरणीय कर्म की पांच उत्तरप्रकृतियां है-2
(1) मतिज्ञानावरणीय (2) श्रुतज्ञानावरणीय (3) अवधिज्ञानावरणीय (4) मनःपर्यवज्ञानावरणीय तथा (5) केवलज्ञानवरणीय। इनका संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार
(क) मतिज्ञानावरणीय- पांचों इन्द्रियों और मन के द्वारा जिससे वस्तु का निश्चित
बोध हो या मनन हो उस मति ज्ञान को ढंकने वाला कर्म मतिज्ञानावरणीय कहलाता हैं।
' मुनि मोहनलाल शार्दुल, जैन दर्शन के पारिपार्श्व में, पृ. 17 2 “णाणावरण पचविहं, सूयं आभिणिबोहियं
ओहिणाणं तु तइयं, मणनाणं च केवलं"- उत्तराध्ययन 33/4 3 "पंचमिदिन्द्रियैमनिसा च, यदर्थ ग्रहणं तन्मतिज्ञानं" धवला
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