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चेतना के अखण्ड सूर्य को कुछ कर्म-मेघ के समान ढक देते है। इस प्रकार कर्म की एक प्रकृति है-आवृत्त करने की ज्ञानावरण की चेतना का कार्य है प्रकाशित रहना, स्व-पर को यथार्थरूप से और पूर्णरूप से जानना, परन्तु ज्ञानावरणीय कर्म
की प्रकृति- ज्ञान को आवृत्त कर देने की है। 2. कर्म की एक प्रकृति है- सुषुप्तिकारक आत्मा की प्रकृति है-सदैव जागरूक
रहने, देखने की परन्तु सुषुप्ति या अजागृति पैदा करने के स्वभाव वाला कर्म उसमें बाधक बनता है। ऐसे स्वभाव वाला कर्म है-दर्शनावरणीय। इस कर्म की प्रकृति या स्वभाव है- दर्शन की शक्ति पर आवरण डालना, अनन्तदर्शन की अभिव्यक्ति में बाधा उत्पन्न करना। आत्मा में अनन्त अव्याबाध आत्मिक सुख है- आनन्द, वह उसका मूल स्वभाव है। किन्तु मूर्छाकारक प्रकृति वाला या विकारक स्वभाव वाला मोहनीय कर्म आत्मा के उस असीम आनन्द को विकृत कर देता है। जीव पर मोह का पर्दा डाल कर कठिन परिस्थिति में अनाकुल रहने की उसकी आनन्द मय प्रकृति को कुण्ठित, विकृत और ध्वस्त कर डालता है। कर्म की एक प्रकृति है- शक्ति प्रतिरोधक। वह आत्मा की दान, लाभ, भोग और उपभोग-शक्ति को कुण्ठित एवं प्रतिरूद्ध कर देती है। इस प्रकृति के कर्म को अंतराय-कर्म कहते हैं।
यह चार घातिकर्म के स्वभाव है। ये चारों घातिकर्म आत्मा के पूर्वोक्त चार गुणों का प्रबलरूप से घात करते हैं। यद्यपि आत्मा के अनन्तगुण हैं, फिर भी प्रकृतिबन्ध की अपेक्षा मुख्य आठ गुण बताये गये है।
आत्मा के शेष चार गुण हैं - (1) अव्याबाध आत्मसुख (2) अक्षयस्थिति (शाश्वतता) (3) अरूपित्व (4) अगुरूलघुत्व । इन चारों गुणों को बाधित करने का स्वभाव निम्न कर्मों में
(1)
आत्मा के अव्याबाध सुख को रोककर बाह्य सांसारिक सुख-दुःख का अनुभव कराने वाला वेदनीय कर्म है।
'कर्मविज्ञान भाग 4, पृ. 200-201
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