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काया से किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करता है, तब चारों और से कर्मयोग्य परमाणुओं का आकर्षण होता है। जितने क्षेत्र में आत्मा विद्यमान रहती है, उतने ही प्रदेश में विद्यमान कर्म-परमाणु उस प्राणी के द्वारा उस समय ग्रहण किये जाते हैं, अन्य नहीं।
फिर राग-द्वेष के कारण बन्ध होता है, कर्मबन्ध होने के साथ ही आत्मा के योग और कषाय के अनुसार स्वतः ही कर्मबन्ध की अंशरूप अवस्थाएं या व्यवस्थाएं निष्पन्न होती है। वे चार अवस्थाएं हैं- प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, रसबन्ध व स्थितिबन्ध ।'
प्रकृतिबन्ध
जैसे प्राणियों के स्वभाव से उनका पृथक्करण या विभाजन किया जाता है। वैसे ही कर्मों के स्वभाव से उनका पृथक्करण किया जाता है। आत्मा के साथ कर्म का बन्ध या श्लेष होने के साथ ही उस कर्म के स्वभाव का विश्लेषण स्वतः हो जाता है। कर्म को यथार्थ रूप से पहचानने के लिए सर्वप्रथम कर्म का स्वभाव जाना जाता है। प्रकृतिबन्ध अर्थात् कर्म के स्वभाव का निर्णय। प्रकृतिबन्ध स्वयं ही कर्म के स्वभाव का हिसाब रखता
गोम्मटसार में बताया है- नीम की प्रकृति कडुआपन हैं, गुड़ की प्रकृति मीठापन है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृति है-ज्ञान को आवृत्त करना अथवा पदार्थ का ज्ञान न होने देना।
धवला में 'प्रकृति' शब्द की व्युत्पत्ति की गई है जिसके द्वारा आत्मा को अज्ञानादि रूप फल प्रदान किया जाता है, वह प्रकृति है।'
आत्मा के मूल स्वभाव चार हैं - (1) ज्ञान, (2) दर्शन, (3) अव्याबाधसुख, (4) आत्मशक्ति (वीर्य)। इसके विपरीत कर्म की प्रकृतियां चार है - (1) आवारक, (2) सुषुप्तिकारक, (3) मूर्छा कारक, (4) शक्ति प्रतिरोधक। 1. आवारक का अर्थ- आवृत्त करने वाला, दबाने वाला। जिस प्रकार बादल सूर्य
को आवृत्त कर देते हैं, उसकी रोशनी को दबा देते है। उसी प्रकार प्राणी की
' आ. देवेन्द्रमुनि, कर्मविज्ञान, भाग 1, वही, पृ. 373
जैन दृष्टि ए कर्म (डॉ. मोतीचन्द कापड़िया) पृ. 43 गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गाथा 2/52 * प्रक्रियते अज्ञानादिकं फलमनया आत्मनः इति प्रकृति शब्द व्युत्पत्तेः" धवला पृ. 303
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