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वर्गणा के पुद्गल-परमाणुओं के पिण्डरूप कर्म को द्रव्यकर्म और तज्जनित राग-द्वेषादि परिणामों से हुई प्रवृत्तियों को भावकर्म कहा गया है।'
समग्र दृष्टि से जैन-दर्शन का मन्तव्य है कि – डिबिया में भरे हुए काजल की तरह इस सम्पूर्ण लोक में सूक्ष्म और बादर कर्मपुद्गल परमाणु ठसाठस भरे हुए हैं। ऐसा कोई भी स्थान नहीं जहां कर्म-पुद्गल-परमाणु न हो। लेकिन ये समस्त कर्म-पुद्गल-परमाणु कर्म नहीं कहलाते। कर्मयोग्य पुद्गल सर्वलोकव्यापी होने से, जहां आत्मा है वहां पहले से विद्यमान रहते है। जिस क्षेत्र में आत्मप्रदेश है, उसी क्षेत्र में रहे हुए अनन्तानन्त कर्मयोग्य पुद्गल जीव के राग-द्वेषादिरूप परिणामों से आत्मप्रदेशों के साथ बद्ध हो जाते हैं। आत्मप्रदेशों से सम्बद्ध ये कर्म-परमाणु ही जैन दृष्टि से द्रव्यकर्म कहलाते है।
इस तरह द्रव्यकर्म और भावकर्म की परस्पर निमित्त नैमित्तिक श्रृंखला हैं-जीव के योग का निमित्त पाकर कर्मवर्गणाएं उसके प्रति स्वतः आकर्षित हो जाती है और इधर से उधर गतिमान होती हुई उस जीव के प्रदेशों में प्रवेश करके द्रव्यकर्म के रूप में परिणत हो जाती है। फिर जीव के उपयोग का अर्थात्-राग-द्वेष-मोहात्मक भावकर्म का निमित्त पाकर के 'द्रव्यकर्म' अनुभाग तथा स्थिति को धारण करके कुछ काल पर्यन्त उसी अव्यक्त अवस्था में जीव के साथ बन्धे रहते हैं। यह स्थिति पूर्ण होने पर द्रव्यकर्म परिपाक दशा को प्राप्त होकर उदय में आता हैं (फलोन्मुख होता है)। जिससे जीव में योग और उपयोग उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार भाव-कर्म से द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म से भावकर्म की यह अटूट निमित्त-नैमित्तिक श्रृंखला अनादिकाल से चली आ रही हैं। कर्मबन्ध के हेतु और प्रकार
जैन शास्त्रों में द्रव्यकर्म-बन्ध को चार भेदों में वर्गीकृत किया गया है- (1) प्रकृतिबन्ध (2) प्रदेशबन्ध (3) अनुभागबन्ध (रसबन्ध) तथा (4) स्थितिबन्ध।
कर्मवर्गणा के पुद्गल परमाणु आकाश में सर्वत्र व्याप्त है, कोई ऐसा स्थान नहीं है जहां कर्म-योग्य-पुद्गल-परमाणु विद्यमान न हो। परन्तु जब प्राणी मन-वचन अथवा
' जिनवाणी, आ. देवेन्द्रमुनि, (कर्मसिद्धान्त विशेषांक) पृ. 25 - जैनदर्शन और आत्मविचार, डॉ. लालचन्द्र जैन, पृ. 184 3 जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 4, पृ. 14
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