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कर्म के दो रूप- द्रव्य कर्म और भावकर्म
कर्म के स्वरूप को अच्छी तरह से समझने के लिए कर्म के भावात्मक और द्रव्यात्मक दोनों पक्षों पर विचार करना आवश्यक हैं। आत्मा के मानसिक विचार और उन विचारों के प्रेरक या निमित्त, ये दोनों ही तत्व 'कर्म' में ताने-बाने की तरह मिले हुए हैं।
____ गौम्मटसार में कर्म के इन चेतन-अचेतन पक्षों की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि – “कर्म सामान्य भावरूप कर्मत्व की दृष्टि से एक ही प्रकार का है, किन्तु वही कर्म द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है। ज्ञानावरणादि पुद्गल द्रव्य का पिण्ड द्रव्यकर्म है और उसकी चेतना को प्रभावित करने वाली शक्ति अथवा पिण्ड में फल देने की शक्ति भाव कर्म है।
तत्वार्थ सार में बताया है कि जीव के राग-द्वेषादि विकार भावकर्म कहलाते हैं और राग द्वेषादि भावकर्मों के निमित्त से आत्मा के साथ बन्धने वाले अचेतन पुद्गल परमाणु द्रव्य-कर्म कहलाते है।
जिनेन्द्रवर्णी जी के अनुसार- कर्म दो प्रकार का होता है- द्रव्य रूप और भावरूप। गमनागमन रूप क्रिया द्रव्यकर्म है और परिणमनरूप पर्याय भावकर्म है। प्रयोजनवश से पुद्गल को द्रव्यात्मक पदार्थ और जीव को भावात्मक पदार्थ माना गया है, इसलिए पुद्गल की पर्याय द्रव्यकर्म और जीव की पर्याय भाव-कर्म हैं।
अनादिकालीन कर्ममलों से युक्त सांसारिक जीव रागादि कषायों से संतप्त होकर अपने मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों या क्रियाओं से कर्मवर्गणा के पुद्गल परमाणुओं को आकर्षित कर लेता है। मन-वचन-काया की प्रवृत्ति तभी होती है, जब जीव के साथ कर्म सम्बद्ध होता हो तथा कर्म तभी सम्बद्ध होता है जब मन-वचन-काया की क्रिया या प्रवृत्ति हो। इस प्रकार प्रवृत्ति से कर्म और कर्म से प्रवृत्ति की शाश्वत परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। कर्म और प्रवृत्ति में कार्य-कारण भाव को लक्ष्य में रखते हुए कार्मण
' “पोग्गलपिण्डो दर तस्सत्तिभावकम्मंतु" गोम्मटसार, कर्मकाण्ड 6 ' तत्वार्थसार, 5/24/19 'कर्मसिद्धान्त, जिनेन्द्रवर्णी, पृ. 43
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