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(धर्म-अधर्म-आकाश-काल) में भाववती शक्ति ही है। प्रदेशों के संचलनरूप परिस्पन्दन को क्रिया कहते है और एक ही वस्तु में ही जो धारावाही परिणमन होता है, वह भाव है।" इससे स्पष्ट है कि जीव और पुद्गल में हलन-चलन पाये जाने से जीव और पुद्गल विशेष का बन्ध होता है, क्योंकि जीव में वैभाविक शक्ति का सद्भाव है। इसलिए रागादि भावों के कारण वैभाविक शक्ति-विशिष्ट जीव कार्मणवर्गणा को अपनी और आकर्षित करता है। इस प्रकार जीव का कर्मों के साथ सम्बन्ध होता है। इससे कार्मण पुद्गल भी कर्मभाव को प्राप्त होने से 'कर्म' कहलाते हैं।'
कर्म शब्द का सामान्य अभिधेयार्थ क्रिया है किन्तु व्यञ्जनार्थ को ग्रहण करने पर यह अर्थ होता है कि - जीव के द्वारा होने वाली क्रिया। आत्मशक्तियों को आवृत्त करने वाले कार्मण वर्गणा के पौद्गलिक परमाणुओं के संयोग को कर्म कहते है तथा उस संयोग के कारण आत्मा में समुत्पन्न विषय-कषायों के संस्कारों को भी कर्म कहते हैं।
इन्हीं संस्कारों को परलोकवादी दर्शनों ने कर्म रूप में स्वीकार किया है। सभी आस्तिक धर्मों और दर्शनों ने एक ऐसी सत्ता को स्वीकार किया है जो आत्मा की विभिन्न शक्तियों को तथा शुद्धता को प्रभावित, आवृत्त एवं कुण्ठित कर देती है। उन दर्शनों ने उसे भिन्न-भिन्न नामों से सम्बोधित किया हैं।'
बौद्ध दर्शन में उसे वासना और अविज्ञप्ति कहा हैं। वेदान्त दर्शन में उसी को माया और अविद्या कहा है। सांख्य दर्शन में उसको प्रकृति या संस्कार कहा है। योग दर्शन में उसके लिए क्लेश, कर्म, आशय आदि शब्दों का प्रयोग हुआ हैं। न्यायदर्शन में प्रयुक्त अदृष्ट, संस्कार शब्द भी इसी अर्थ का द्योतक है। वैशेषिक दर्शन में 'धर्माधर्म' शब्द का प्रयोग हुआ है।
' पंचाध्यायी, अध्य. 2, 25-26
कर्मविज्ञान, वही, पृ. 224 ३ अभिधर्मकोष, परिच्छेद-4 'ब्रह्मसूत्र, शांकरभाष्य, 2/1/104
सांख्यकारिका योगदर्शन
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