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जैन दर्शन के अनुसार कर्म शब्द केवल क्रिया, कार्य या संस्कार के अर्थ में ही परिसीमित नहीं है, अपितु वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसका आत्मा से सम्बद्ध एक ऐसा अर्थ लिया गया है जिसमें जीव के द्वारा होने वाली प्रत्येक क्रिया से लेकर फल तक के सारे अर्थ समाविष्ट हो जाते है।
जीव का स्पन्दन तीन प्रकार से होता है- कायिक, वाचिक, मानसिक । प्रत्येक जीव शरीर से कुछ न कुछ क्रिया करता है, जिनके रसनेन्द्रिय है, वे वचन से कुछ न कुछ बोलते रहते हैं, तथा संज्ञी जीव मन से कुछ न कुछ विचार - चिन्तन करते रहते हैं । इन्हें योग कहते है । तत्वार्थसूत्र में कहा है- काय, वचन और मन का व्यापार योग है ।" "
जिन भावों से स्पन्दन क्रिया होती है, उनके संस्कार क्षण-क्षण में जीव द्वारा ग्रहीत पुद्गलों में ही संचित होते रहते है। वे किस तरह परिणमन करते हैं, बताया है जैसेपात्र में डाले गये अनेक रस वाले बीज, पुष्प और फलों का मद्य रूप में परिणमन होता हैं, उसी प्रकार आत्मा में स्थित पुद्गलों का भी योग और कषाय के कारण कर्मरूप से परिणमन हो जाता है । 2
वैसे तो पुद्गलों की जातियां 23 हैं, परन्तु सब पुद्गल कर्म रूप में परिणत नहीं होते । मात्र कार्मणवर्गणा के पुद्गल ही कर्म में परिणत होते हैं। ये अतिसूक्ष्म और समस्त लोक में व्याप्त है। जीव स्पन्दनक्रिया द्वारा इन्हें प्रति समय ग्रहण करता और
अपने भावों के अनुसार इन्हें संस्कार रूप में संचित करके कर्मरूप में परिणत कर लेता है । जिस तरह सी.डी. में शब्द और आकृतियां संचित हो जाती है उसी तरह कर्मवर्गणा में संस्कार संचित होते है ये कर्मवर्गणाएं ही द्रव्यकर्म है और उनमें संचित संस्कार भावकर्म
है ।
इस तरह जैन दर्शन में कर्म शब्द के तीन अर्थ प्रयुक्त होते हैं- (1) जीव की स्पन्दन क्रिया ( 2 ) जिन भावों से स्पन्दन क्रिया होती है, उनके संस्कार से युक्त कार्मण पुद्गल (3) वे भाव, जो कार्मण पुद्गलों में संस्कार के कारण होते हैं। कार्मण पुद्गल ही कर्म क्यों कहलाते हैं, इस प्रश्न का समाधान पंचाध्यायी में इस प्रकार किया गया है कि - " जीव तथा पुद्गल में भाववती तथा क्रियावती शक्ति पाई जाती हैं, शेष चार
1 " कायवाङ्मन कर्मयोगः " तत्वार्थसूत्र, 6/1
2 तत्वार्थराजवार्तिक (अकलंकदेव) पृ. 224
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