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इस प्रकार कर्मवाद एक वैज्ञानिक एवं तर्कसिद्ध सिद्धान्त है। इसे गहराई से समझने की अपेक्षा है, अज्ञान के आवरण को तथा दुराग्रह को हटाकर देखने की आवश्यकता है।
यह हमें दृष्टिगत है कि जिसके बीज वपन किये जाते हैं, उसी के फल लगते हैं, विष भक्षण से जीवन और अमृत-पान से मृत्यु मिले यह सम्भव नहीं है, शीत-लहर में व्यक्ति कंपायमान नहीं हो, और अग्नि से जले नहीं, इन्द्रिय प्रत्यक्ष में यह सम्भव नहीं है, आग सदा दाहकारी होती है तथा शीतलहर शीत का प्रकोप करने वाली होती है, यह प्राकृतिक विधान है। तब फिर पुण्य का फल पाप और पाप का परिणाम पुण्य कैसे हो सकता है?
इस सत्य के हम प्रत्यक्षदर्शी है कि- मुंह में नमक की डली डालते ही मुंह खारा हो जाता है तथा मिश्री की डली से मुंह मीठा हो जाता है, तब शुभ-अशुभ कर्मों का प्रतिफल कैसे जायेगा? वह अपने स्वरूप के अनुकूल ही आयेगा।
___ कर्मवाद का सिद्धान्त बहुत विशाल और सार्वभौम है। देशकाल से अतीत है। कोई भी व्यक्ति किसी भी समय एवं क्षेत्र में जैसा कर्म करेगा वैसा ही परिणाम आयेगा, कोई अपवाद नहीं होगा।
जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों में भी कर्म के अस्तित्व को स्वीकार किया है।
बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार "चेतना के द्वारा की जाने वाली शारीरिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं को कर्म कहते है।'
जैन दर्शन में कर्म का अर्थ एवं स्वरूप
जैन दर्शन में कर्म शब्द का अर्थ सबसे विलक्षण एवं विशिष्ट है। सामान्यरूप से कर्म का अर्थ क्रियापरक ही किया गया है। किन्तु यह उसकी आंशिक व्याख्या है। कर्मग्रन्थ में कर्म की स्पष्ट परिभाषा दी है- "जीव के द्वारा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग आदि हेतुओं से जो किया जाता है, वही 'कर्म' कहलाता है।
' बौद्धधर्मदर्शन, अंगुत्तरनिकाय 2 "कीरइ जिएण हेउहिं, जेण तो भण्णए कम्म" कर्मग्रन्थ भाग-1, गाथा-1
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