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________________ इनका तात्पर्य है कि सभी आत्माएं समान हैं, इसलिए संसार में जातिमद का पोषण करके उच्च-नीच भाव की वृद्धि नहीं करनी चाहिए। सभी वेदवाक्यों का अर्थ एक समान नहीं होता। कुछ वेदवाक्य कर्तव्य का बोध कराते है तो कुछ वाक्य इष्ट की स्तुति करके उसमें प्रवृत्ति कराने वाले और अनिष्ट की निन्दा करके उसमें निवृत्ति कराने वाले होते हैं। तथा कुछ वाक्य अनुवादपरक होते हैं जिनमें कोई विशेष बात नहीं होती हैं। __ "विज्ञानघन एवैतेभ्यः” का तात्पर्य है कि विज्ञानधन अथवा पुरुष (आत्मा) भूतों से भिन्न है। यह पुरुष कर्ता और शरीरादि कार्य है। कर्ता और कार्य के बीच में जो कारण है वही कर्म है। जैसे लुहार और लोहे के बीच कर्तृ-कार्य भाव होने से सण्डासी करण है। वैसे ही आत्मा के शरीरादि कार्य में करण "कर्म" है। इस तरह कर्मों का अस्तित्व सिद्ध होता है। पूर्वजन्म और पुनर्जन्म से कर्म की सिद्धि किसी भी प्राणी की यात्रा केवल इसी जन्म तक सीमित नहीं है। उसकी जीवनयात्रा मुक्ति प्राप्त करने से पहले कई जन्मों तक चल सकती है, इसी प्रकार व्यक्ति की जीवन यात्रा इस जन्म से पूर्व भी कई जन्मों से चली आ रही है। तो व्यक्ति को सुकर्म या दुष्कर्म का फल अवश्य मिलता ही है, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में पूर्वजन्म अर्थात् इस भव के पहले वाला जन्म तथा – इस जन्म के शरीर का आयुष्य पूर्ण होने पर अगले जन्म का नया शरीर धारण करना पुनर्जन्म कहलाता है। इस तरह कर्मों के कारण ही कार्मणशरीर युक्त आत्मा इहलोक-परलोक में गमन करती है। पूर्वजन्म और पुनर्जन्म सर्वज्ञों द्वारा प्रत्यक्ष है, जैसे कि- उत्तराध्ययन सूत्र में वर्णित चित्र-संभूति के छः भवों की घटना सती राजमति का अरिष्टनेमि के साथ 9 जन्मों का सम्बन्ध । श्रमण-भगवान महावीर के पूर्वभवों का उल्लेख कल्प सूत्र आदि में वर्णित है।' प्रत्यक्ष ज्ञानी तीर्थंकरों तथा उनके गणधरों, विशेषतः श्री गौतम स्वामी, सुधर्मा स्वामी आदि ने अनेक शास्त्रों एवं ग्रन्थों में पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले घटनाचक्रों का जहां-तहां उल्लेख किया है। इस प्रकार पूर्वजन्म और पुनर्जन्म से कर्मों का अस्तित्व सिद्ध होता है। गणधरवाद, पृ. 46-47 कर्मविज्ञान भाग-1, पृ. 51-57 145 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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