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ईश्वरवादियों का तर्क है कि कर्मरहित शुद्ध जीव चेष्टाहीन है किन्तु सशरीरी ईश्वर देहादि सभी कार्यों के कर्ता हैं।
सशरीरी ईश्वर को मानने पर कई प्रश्न उठते हैं- वह ईश्वर अपने शरीर की रचना सकर्म करता है या कर्म रहित होकर? ईश्वर अपने शरीर की रचना नहीं कर सकता क्योंकि, उपकरणों का अभाव हैं। यदि दूसरे ईश्वर ने उसके शरीर की रचना की तो फिर यह प्रश्न होगा कि वह अन्य ईश्वर सशरीरी है या अशरीरी? अशरीरी होगा तो रचना नहीं कर सकेगा और सशरीरी तथा कर्मसहित है तो वह स्वयं के शरीर की रचना स्वयं नहीं कर पायेगा, तो दूसरे का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। उसके शरीर की रचना तीसरे ईश्वर से माने तो फिर वे सब प्रश्न पुनः खड़े हो जायेंगे। अतः ईश्वर को कर्मरहित मानने पर जगत् की विचित्रता उसमें संभव नहीं है और यदि कर्म सहित माने तो यह भी ठीक ही है कि- जीव ही सकर्म होने के कारण देहादि की रचना करता हैं।
इससे यह सिद्ध होता है कि देहादि की विचित्रता ईश्वर से नहीं बल्कि कर्म से हैं ऐसा मानने पर कर्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। वेद वाक्यों का समन्वय होने पर कर्म की सिद्धि
यदि वेदों में कर्म का अभाव माना जाता है तो वेदों में स्वर्ग में जाने की इच्छा रखने वाले को अग्निहोत्र या यज्ञ करने का विधान भी गलत साबित होता हैं क्योंकि उन ग्रन्थों के अनुसार - यज्ञ आदि का अनुष्ठान करने से आत्मा में एक अपूर्व-कर्म (अनुपम) उत्पन्न होता है जिससे जीव स्वर्ग में चला जाता है। यदि वह अपूर्व कर्म प्रकट नहीं होता हैं तो जीव किस आधार से स्वर्ग में जायेगा? मृत्यु होने पर शरीर तो जल जाता है अर्थात् शरीर छूट जाता है, तो बिना किसी नियामक कारण के स्वर्ग में कैसे जायेगा? अतः इस बात से यह मानना आवश्यक है कि- वेदों में कर्म के अभाव की प्ररूपणा नहीं
वेद ग्रन्थों में कुछ वाक्य द्विअर्थी है जैसे- पुरुष वेदग्नि सर्व यद्भूतं यच्चभाव्यं" का एक अर्थ है, “पुरुष अर्थात् आत्मा ही है। इसमें 'ही' शब्द कर्म-ईश्वर आदि तत्वों का निषेध करता है, ठीक इसी प्रकार- "विज्ञानघन एवैतेभ्यः” इस वाक्य का भी अर्थ किया गया कि- विज्ञानघन से भिन्न कुछ भी नहीं है।
' मिला प्रकाश खिला बसन्त (आ. जयन्तसेन सूरि), पृ. 93-94
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