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यदि स्वभाव का अर्थ अकारणता करे तो यह तात्पर्य होगा कि शरीर आदि बाहरी पदार्थों का कोई कारण नहीं है। यदि उनका कोई कारण न हो तो सब पदार्थों में कारणाभाव समान रूप से होगा।
शरीर आदि को आकस्मिक (अहेतुक) भी नहीं मान सकते क्योंकि शरीरादि तो नियत आकार वाले पदार्थ है। जो आकस्मिक होता है उसका कोई आकार नहीं होता। यदि अहेतुक नहीं है तो कर्म-हेतुक मानना पड़ेगा। शरीर आदि पदार्थ सादि और नियत आकार वाले होने के कारण उसका कोई न कोई उपकरण सहित कर्ता भी मानना पड़ेगा। कर्म के अतिरिक्त शरीर रचना के लिए अन्य कोई उपकरण सम्भव नहीं है। अतः जगत् की विचित्रता स्वभाव-जन्य न मान कर कर्मजन्य ही माननी चाहिए।' ईश्वरादि कारण नहीं होने पर कर्म की सिद्धि
ईश्वरवादी मानते हैं कि ईश्वर ही समस्त वैचित्र्य का कर्ता है। न्यायदर्शन के अनुसार ईश्वर ही संसार का आदि सर्जक पालक और संहारक है। वह शून्य से संसार का निर्माण नहीं करता है, किन्तु नित्य परमाणुओं, दिशा, काल, आकाश, मन तथा आत्माओं से करता है। उसे संसार का पोषक इसलिए कहा है कि - संसार ईश्वर की इच्छानुसार कायम रहता है। वह संसार का संहारक इसलिए है कि वह संसार में पापी-दुष्ट और अधर्मियों का नाश करता है। अतः संसार का कारण कर्म नहीं, ईश्वर है।
ईश्वरकृत संसार को मानने पर कई शंकाएं खड़ी हो जाती है, यथा – यदि ईश्वर को शुद्ध जीव मानते है तो वह शरीरादि का आरम्भ ही नहीं कर सकता, क्योंकि उसके पास आवश्यक उपकरणों या साधनों का अभाव है। जैसे चित्रकार पटल, तुलिका तथा रंग के अभाव में चित्र को नहीं बना सकता उसी प्रकार शरीर आदि के निर्माण में कर्म के अतिरिक्त अन्य किसी भी उपकरण की संभावना सिद्ध नहीं होती। अतः यह सिद्ध होता है कि जीव कर्मरूप उपकरण द्वारा ही देह का निर्माण करता है।
दूसरा तर्क है कि - शुद्ध जीव अर्थात् जो कर्म से रहित है ऐसे जीव तो निश्चेष्ट होते हैं। तो वे शरीर आदि बनाने की क्रिया कैसे कर सकते हैं। जैसे आकाश, कर्मरहित जीव चेष्टा से हीन है अतः यह कार्य वे नहीं कर सकते हैं।
गणधरवाद, पृ. 44-45 - विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा-1642
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