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विचित्रता के कारण कर्म की सिद्धि
समान साधन होने पर भी फल में जो अन्तर दिखाई देता है, वह बिना कारण के नहीं हो सकता। जैसे कि- एक जैसी मिट्टी और एक ही कुम्हार द्वारा बनाये जाने वाले घड़ों में पंचभूत समान होते हुये भी अन्तर दिखाई देता है। इसी प्रकार एक ही माता-पिता के, एक साथ उत्पन्न हुए दो बालकों में बुद्धि, शक्ति आदि में अन्तर पाया जाता हैं, उसका कोई न कोई कारण तो अवश्य होना चाहिए।
प्रश्न होता है कि बादलों में जो विचित्र प्रकार के विकार उत्पन्न होते हैं, वह विचित्रता कर्म के कारण नहीं हैं, स्वभावजन्य हैं, वैसे ही बिना कर्म के ही संसारी जीव के सुख-दुःख की तरतमता रूप विचित्रता मान लेनी चाहिए क्योंकि बादलों का परिवर्तन स्पष्टतः दिखाई देता हैं। इसका समाधान यह है कि - कर्म सूक्ष्म शरीर है, वह अनादिकाल से आत्मा के साथ लगे हैं। बाह्य शरीर की विचित्रता कार्मण शरीर पर ही निर्भर हैं। यदि सूक्ष्म शरीर न माने तो जीव भवान्तर में पुनः स्थूल शरीर प्राप्त नहीं कर सकता। क्योंकि स्थूल शरीर प्राप्ति का कारण सूक्ष्म कार्मण शरीर ही है।
__कार्मण शरीर को न मानने पर सभी जीव मरने के बाद अशरीरी हो जायेंगे, और बिना प्रयत्न के ही मुक्त हो जायेंगे। शरीर के बिना भी यदि भवभ्रमण होता रहा तो मोक्षगामी को भी संसार में आना पड़ेगा। अतः कार्मण शरीर को मानना आवश्यक है और कार्मण शरीर को मानने पर कर्म का अस्तित्व स्वतः सिद्ध हो जाता है।' स्वभाववाद के निराकरण से कर्म की सिद्धि
स्वभाववादियों का कथन है कि- कमल कोमल है, कांटे कठोर है, मयूर के पंख विचित्र रंगों वाले हैं, इस तरह विश्व में जो विचित्रता है, यह सब कुछ स्वभाव से ही होती है। जगत् में जो कुछ भी होता है नहीं होता है, उसका कोई हेतु नहीं है वैसे ही जीव के सुख-दुःख का भी कोई हेतु (कारण) नहीं है। स्वभाववादियों के ऐसा मानने पर कई शंकाएं खड़ी हो जाती है- स्वभाव वस्तुविशेष है या वस्तु धर्म? मूर्त है या अमूर्त? मूर्त मानने पर वह कर्म का ही दूसरा नाम होगा और अमूर्त मानने पर वह किसी का कर्ता नहीं बन सकता क्योंकि शरीर आदि मूर्त पदार्थ उनका कारण भी मूर्त होना चाहिए और
' विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा 1633-1634
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